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४८०: सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
'सत् द्रव्यलक्षम्' द्रव्यका यह लक्षण अविकल पाया जाता है। आकाश द्रव्यका मुख्य गुण अवगाहहेतुत्व है। यह पूरे आकाशमें अखण्डभावसे पाया जाता है। यद्यपि अलोकाकाशमें अन्य द्रव्य नहीं हैं, मात्र इसलिए उसकी वहाँ इस शक्तिका अभाव नहीं हो जाता। यह आकाशका स्वभाव है और स्वभावका कभी नाश नहीं होता। 'आकाश' यह शब्द ही आकाशके अस्तित्वका सूचक है । जैसे अन्य द्रव्योंमें स्वनिमित्तक और परप्रत्यय उत्पाद बन जाता है उसी प्रकार आकाशमें भी उत्पादका सद्भाव सिद्ध होता है। वास्तवमें आकाश अखण्ड एक द्रव्य है। फिर भी जितने आकाशमें जीवादि अन्य पाँच द्रव्य पाये जाते हैं उसे लोकाकाश कहते हैं और शेष आकाशकी अलोकाकाश संज्ञा है। आकाशका यह विभाग मात्र परसापेक्ष कथन होनेसे व्यवहारनयसे ही कहा गया है । यहाँ 'लोक' यह शब्द जीवादि द्रव्योंसे युक्त आकाशके लिए आया है । इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है - लोक्यन्ते यत्र जीवादयः असौ लोकः-जहाँ जीवादि पाँच द्रव्य देखे जाते हैं उसे लोक कहते हैं । ये छहों द्रव्य द्रव्याथिकनयसे कथंचित् नित्य हैं, इसलिए लोक भी कचित् नित्य है और पर्यायाथिकनयसे कथंचित् अनित्य है, इसलिए लोक भी कथंचित् अनित्य है।
आगे लोककी लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई बतलाकर तथा उसके अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक ये तीन भाग करके कहाँ कैसी रचना है और किस गतिके जीव रहते हैं इसका विस्तारसे विवेचन किया गया है। साथ ही प्रसंग पाकर चारों गतियोंमेंसे किस गतिके जीव मर कर किस-किस गतिमें उत्पन्न होते हैं यह भी बतलाया गया है । मध्यलोकके वर्णनके प्रसंगसे ३० भोगभूमि और १५ कर्मभूमि बतलाकर उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालका भी वर्णन किया गया है । इस प्रकार इस समग्र विवेचनके साथ यह अधिकार पूर्ण होता है।
सातवें अधिकारका नाम है-कालद्रव्य निरूपण (पृ० १९४ से लेकर पृ० २०८ तक)। 'कालो त्ति य ववएसो सब्भावपरूवओ हवदि णिच्चो ।' इस आगमवचनको उद्धृत कर गुरुजीका कहना है कि 'काल' यह स्वतन्त्र शब्द है, अतः इसका वाच्य अवश्य होना चाहिए । इससे कालद्रव्यके अस्तित्वकी सिद्धि होती है । यह वर्तमानलक्षण है, द्रव्यदृष्टिसे नित्य होकर भी स्वयं पर्यायक्रमसे उत्पाद-व्ययशील है और अन्य पदार्थोके परिवर्तनमें हेतु है । लोकाकाशके जितने प्रदेश हैं उतने ही कालद्रव्य हैं। यह अलोकाकाशमें नहीं पाया जाता, फिर भी आकाशके अखण्ड होनेसे उसके पर्यायरूपसे परिवर्तनका हेतु है। - यहाँ यह प्रश्न होने पर कि-धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्यके समान कालको अखण्ड एक द्रव्य क्यों स्वीकार नहीं किया-समाधान करते हए लिखा है कि
१. मुख्य काल अनेक हैं । कारण कि प्रत्येक आकाशके प्रदेशोंमें व्यवहार काल भिन्न-भिन्न रीतिसे होता है, क्योंकि कुरुक्षेत्र लंकाके आकाशप्रदेशोंमें दिन आदिका भेद व्यवहारकालके भिन्न-भिन्न हुए बिना बन नहीं सकता।'
२. 'यदि कालको सर्वथा निरवयव अखण्ड एक ही मान लिया जाय तो कालमें अतीतादि व्यवहार नहीं बन सकेगा।'
इससे कालद्रव्य अनेक सिद्ध होते हैं ।
जो समयरूप ही निश्चयकाल है उससे भिन्न कोई अणुरूप काल द्रव्य नहीं, ऐसा मानते हैं उनका समाधान करते हुए गुरुजी कहते हैं कि 'जो समय है वह उत्पन्न-प्रध्वंसी होनेसे पर्याय है और जो पर्याय होती हैं वह द्रव्यके बिना नहीं होती', अतएव अणुरूप कालद्रव्यकी सिद्धि होती है ।
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