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सत् प्ररूपणा (धवला के ९३वें सूत्रमें 'संजद' पद
श्री षट्खंडागमके ९३वें सूत्रमें धवलाका संपादनपूर्वक मुद्रण होकर प्रकाशनकी व्यवस्था श्री डा० हीरालालजीकी देखरेख में हो ऐसा निर्णय होनेपर श्री पं० हीरालालजी सि० शास्त्री डाक्टर साहबके आमंत्रण पर अमरावती पहुँच कर इस काममें लग गये। सत्प्ररूपणा प्रथम पुस्तक उन्होंने मय टिप्पणके तैयार कर ली। किन्तु समितिकी ओरसे मुद्रणकी स्वीकृति न मिलने के कारण मुझे इस काम में सहयोग करनेके लिये आमन्त्रित किया गया।
मेरे वहाँ पहुँचनेपर मुझसे कहा गया कि आप इसको देखें और इसमें जो कमी हो उसको पूरा करें और चाहें तो अलगसे लिखकर अनुवादकी प्रेस कापी भी तैयार कर लें।
डाक्टर साहबकी ओरसे यह सूचना मिलनेपर मैंने पहले लिखे गये अनुवादको सामने रखकर दूसरी बार अनुवादकी प्रेस कापी तैयार की।
किन्तु उसमें ९३वें सूत्रका अनुवाद लिखते समय 'संजद' शब्दको न देखकर मैंने दोनों विद्वानोंके सामने इस सूत्रमें 'संजद पद और होना चाहिये यह प्रस्ताव रखा ।
यद्यपि डा० हीरालालजी प्रकृत विषयसे अनभिज्ञ थे। परन्तु मैं समझता था कि पंडित श्री हीरालालजी सि० शास्त्री मेरे इस प्रस्तावसे सहमत हो जावेंगे। परन्तु मैं अपने प्रस्तावमें उनकी सहमति प्राप्त न कर सका। परिणाम स्वरूप टिप्पणमें 'अत्र संयत इति पाठशेषः प्रतिभाति' यह टिप्पणी देनी पड़ी। फिर भी मैंने अपने अनुवादमें उस पदकी आवश्यकता समझ कर 'संयत' पद जोड़ दिया और इसकी चर्चा दूसरे सहयोगी विद्वानोंसे नहीं की।
जैसाकि मैंने पूर्वमें संकेत किया है, दसरी बार प्रेसकापी तैयार हो जानेपर भी प्रबन्ध समितिसे मुद्रणकी स्वीकृति कैसे ली जाय इसके लिये मैंने डाक्टर साहबके सामने दूसरा यह प्रस्ताव रखा कि यदि आप स्वीकार करें तो हम दोनों द्वारा तैयार किये गये इस अनुवादको १०-१५ दिनमें कारंजा जाकर आ० पं० देवकीनंदनजी सि० शास्त्रीको दिखलाया करेंगे । डाक्टर साहबने मेरे इस प्रस्तावको सहज ही स्वीकार कर लिया। इसलिये मैं १०-१५ दिनमें कारंजा जाकर पण्डितजीको पूरा अनुवाद पढ़कर सुनाता रहा । चर्चा द्वारा जो संशोधन प्राप्त होते थे उनके अनुसार अनुवादमें संशोधन भी करता जाता था और इसप्रकार संशोधित प्रेस कापीको प्रेसमें मुद्रणके लिये दे दिया गया ऐसा करनेसे मुद्रणके लिये प्रबन्ध समितिकी भी स्वीकृति आसानीसे मिल गयी।
यतः प्रूफ देखनेका कार्य स्वेच्छासे मैं ही करता रहा, इसलिये मैंने ९३वें सूत्रके मूल पाठको तो वैसा रहने दिया, किन्तु अनुवादमें 'संजद' पद जोड़ दिया। यही कारण है कि प्रथम संस्करणके ९३३ सूत्रमें 'संजद' पद नहीं है, किन्तु उसके अनुवादमें 'संजद' पद जोड़ा हुआ है । पहले बारके प्रकाशनमें देखेंगे कि सूत्रमें 'संजद' पद नहीं रखा गया है। किन्तु उसके अनुवादमें 'संजद' पद रख दिया गया है । पहले बारके मुद्रित ग्रन्थमें मूल सूत्र और उसका अनुवाद इस प्रकार मुद्रित हुआ है___सम्मामिच्छाइट्ठि असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजदठ्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ ॥१३॥
__ अनुवाद-मनुष्यस्त्रियां सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानोंमें नियमसे पर्याप्तक होती हैं ।।९३॥
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