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४८४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-प्रन्थ
इस प्रकार हम देखते हैं कि मूल सूत्रमें 'संयत' पदके न होनेसे यही सूत्र मुख्यरूपसे विवादका विषय बन गया। एक पक्षका, जिसमें स्व. पं० मक्खनलालजी न्यायालंकार मुख्य थे, कहना था कि यह सूत्र द्रव्यमार्गणाकी अपेक्षा लिखा गया है, इसलिये इसमें 'संयत' पद नहीं होना चाहिये, क्योंकि आगममें द्रव्य मनुष्य स्त्रियोंके पाँच ही गुणस्थान बतलाये गये हैं। किन्तु यह वस्तुस्थिति नहीं है क्योंकि सभी गुणस्थानोंमें और सभी मार्गणाओंमें जीवोंके भेदोंकी ही प्ररूपणा आगममें दृष्टिगोचर होती है इसलिये इस सत्रमें भाववेदकी अपेक्षा मनुष्यिनियोंकी अपेक्षा ही गुणस्थानोंकी प्ररूपणा की गयी है इसलिये इस सूत्रमें 'संयत' पद अवश्य होना चाहिये।
किन्तु स्व० श्री पं० मक्खनलालजी साहब और उनके सहयोगी विद्वान् इसके लिये तैयार नहीं हुए। इसके लिये बंबई समाजकी ओरसे दोनों पक्षों के विद्वानोंको बुलाकर चर्चा करनेका प्रस्ताव रखा गया । फलतः बंबई समाजके आमंत्रणपर दोनों पक्षोंके विद्वान् चर्चाके लिये सहमत हो गये।
९३ वें सूत्र में 'संयत' पद होना चाहिये इस पक्षके विद्वानोंमें स्व. श्री पं० बंशीधरजी न्यायालंकार, श्री पं० कैलाशचंदजी सि० शास्त्री और मुझे आमंत्रित किया गया था तथा ९३ वें सूत्रमें 'संयत' पद नहीं होना चाहिये इस पक्षके विद्वानोंमें स्व. श्री पं० मक्खनलालजी न्यायालंकार, स्व० श्री पं० बलराम प्रसादजी शास्त्री और स्व० श्री क्षु० सूरसिंघजीको आमंत्रित किया गया था ।
नियत समयपर दोनों पक्षके विद्वान् आये, चर्चा प्रारंभ होकर तीन दिन तक चली। स्व० श्री पं० मक्खनलालजी अपने पक्षकी ओरसे अपने पक्षको एक कापीमें लिखकर प्रस्तुत करते रहे और मैं अपने पक्षकी ओरसे लिखित उत्तर देता रहा। इस प्रकार तीन दिन तक लिखित चर्चा चलती रही। किन्तु अन्तमें उस पक्षके विद्वानोंने लिखित चर्चाकी कापीको अपने पास रख लिया और समाजसे यह घोषणा करा दी कि समाजने यह सम्मेलन तीन दिनके लिये बुलाया था। तीन दिन पूरे हो गये हैं आगे यह चर्चा बन्द की जाती है । फिर भी अखबारी दुनियामें यह चर्चा चलती रही इसलिये स्व० श्री पं० मक्खनलालजी प्रभृति विद्वानोंने श्री १०८ आचार्य शांतिसागरजीसे मिलकर यह घोषणा करा दी कि ९३ वें सूत्र में द्रव्यदका प्रकरण है इसलिये इसमें 'संजद' पद नहीं होना चाहिये ।
किन्तु जहाँ तक आगमका सम्बन्ध है उसमें गतिनामकर्मको जीव विपाकी कहा गया है । और गतिनामकर्मके उदयसे ही मनुष्यादि गतियोंकी उत्पत्ति होती है। जैसाकि मनुष्यगतिकी अपेक्षा निर्देश करते हए वर्गणा खण्डमें लिखा भी है
मणुसगदीए मणुसो णाम कधं भवदि ॥८॥
मणुसगदिणामाए उदएण ॥९॥ मनुष्यगतिकी अपेक्षा मनुष्य किस कारणसे होता है ॥८॥ मनुष्यगति नामकर्मके उदयसे जीव मनुष्य होता है ॥९॥ यह वर्गणाखण्डके दो सूत्रोंका अभिप्राय है ।
ये गुणस्थान और मार्गणास्थान जीवोंके भेद प्रभेद है । इसलिये इनमें द्रव्यमार्गणाका ग्रहण न होकर भावमार्गणाओंका ही ग्रहण किया गया है ऐसा यहाँ समझना चाहिये ।
___ इतना सब स्पष्ट होते हुए भी स्व० श्री पं० मक्खनलालजी अपने आग्रहपर जमे रहे। उनके सहयोगी विद्वान् स्व० पं० श्री पन्नालालजी सोनीने अपने निबन्धों द्वारा ९३ वें सूत्रमें संयत' पद अवश्य चाहिये अन्यथा पूरा जिनागम खंडित हो जापगा । फिर भी पं० मक्खनलालजीने अपना आग्रह नहीं छोड़ा । वे इतना
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