________________
४७६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-प्रेन्थ
परिहार करते हुए वहाँ बतलाया है कि 'उन अनन्त शक्तियों (गुणोंमें) दूसरे दो भेद हैं अर्थात् १. क्रियावती शक्ति, २. भाववती शक्ति । प्रदेश अथवा देश परिस्पन्द ( चंचलता ) को क्रिया कहते हैं और शक्तिविशेषको भाव कहते हैं । भावार्थ - अनन्त गुणोंमेंसे प्रदेशवत्त्व गुणको क्रियावती शक्ति कहते हैं और बाकीके गुणोंको भाववती शक्ति कहते हैं । इस प्रदेशवत्त्व गुणके परिणमन ( पर्याय) को द्रव्यपर्याय कहते हैं । इसीका दूसरा नाम व्यञ्जनपर्याय है । शेष गुणों के परिणमन (पर्याय) को गुणपर्याय कहते हैं । इसहीका दूसरा नाम अर्थपर्याय है (५५) ।'
आगे गुणोंको सहभावी या अन्वयी क्यों कहा गया है तथा पर्यायोंको क्रमभावी या व्यतिरेकी क्यों कहा गया है इसका ऊहापोह किया गया है । साथ ही व्यतिरेकको द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे चार प्रकार बतलाकर यह सिद्ध किया है कि जैसे पर्यायोंमें परस्पर व्यतिरेकीपना घटित होता है उस प्रकार गुणों में वह व्यतिरेकीपना घटित नहीं होता ( ६६ से ६८ पृ० ) ।
आगे पर्यायके स्वरूपपर और भी स्पष्ट प्रकाश डालते हुए व्यतिरेकीपन और क्रमवर्तित्व ये दोनों हो पर्यायके लक्षण होते हुए भी इनमें क्या अन्तर है यह स्पष्ट करते हुए बतलाया है - 'स्थूल पर्याय में जो आकार प्रथम समयमें है उस ही के सदृश आकार दूसरे समयमें है । इन दोनों आकारोंमें पहला है सो दूसरा नहीं है और दूसरा है सो पहला नहीं है । इस हीको व्यतिरेकीपन कहते हैं । और एकके पीछे दूसरा होना इसको क्रम कहते हैं । यह वह है अथवा अन्य है इसकी यहाँ विवक्षा नहीं है । 'एकके पीछे दूसरा होना' इस लक्षणरूप क्रम 'यह वह नहीं है।' इस लक्षणरूप व्यतिरेकका कारण है । इसलिए क्रम और व्यतिरेकमें कार्य - कारण भेद है (६९) ।'
आगे सामान्यरूपसे द्रव्य, गुण, पर्यायका विवेचन करनेके बाद प्रसंगसे जैन सिद्धान्तके आधारभूत अनेकान्तका विवेचन किया गया है । प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मस्वरूप है, इसलिए अनेकान्त यह प्रत्येक वस्तुका पर्याय नाम ही है । इसका विग्रह करनेपर भी यही तात्पर्य निष्पन्न होता है । यथा— अनेके अन्ता धर्मा यस्मिन् भावे सोऽयमनेकान्तः - अर्थात् जिस पदार्थमें अनेक धर्म होते हैं उसे अनेकान्त कहते हैं । यह अनेकान्त पदका सामान्य निरूपण हैं । इसे विशेषरूपसे और स्पष्ट समझने के लिए इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक वस्तु सत्-असत्, नित्य-अनित्य, एक-अनेक तथा तत्-अतत् इत्यादि रूपसे परस्पर विरुद्ध सरीखे 'दिखनेवाले' अनेक अर्थात् दो-दो धर्मयुगलोंका अधिकरण है, इसलिए वह अनेकान्त स्वरूप है । जैसे एक ही व्यक्ति पिता भी होता हैं और पुत्र भी, उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिये । ये धर्म प्रत्येक वस्तुका स्वरूप हैं, इसलिए परनिरपेक्ष ही हैं । इनके प्रत्येक वस्तुमें युगपत् रहने में कोई विरोध भी नहीं है, क्योंकि अपेक्षाभेदसे प्रत्येक वस्तुमें इनका अस्तित्व सिद्ध होता है । यहाँ गुरुजीने प्रत्येक वस्तुको अनेकान्तात्मक बतलानेके बाद लिखा है- 'क्योंकि वे धर्म अपेक्षा रहित नहीं हैं, किन्तु अपेक्षा सहित हैं और वे अपेक्षा भी भिन्न-भिन्न हैं ।' सो उनके ऐसा लिखनेका यही ताप्पर्य है कि बुद्धि द्वारा विचार करनेपर अपेक्षा भेदसे प्रत्येक वस्तुमें उन सत्-असत् आदि धर्मयुगलोंकी सम्यक प्रकार सिद्धि होती है, इसलिए प्रत्येक वस्तुको तत्स्वरूप मानयेमें कोई बाधा नहीं आती ।
गुरुजी यहाँ ( पृ० ७२ से ११८ तक ) अनेकान्तका तत्त्वार्थवार्तिक और अष्टसहस्री आदि ग्रन्थोंके आधारसे बड़ा ही मार्मिक स्पष्टीकरण किया है। उनका कहना है कि एक शब्द एक समय में वस्तु के अनेक धर्मोका प्रतिपादन नहीं कर सकता और शब्दकी प्रवृत्ति वक्ताकी इच्छापूर्वक होती है, इसलिए वक्ता एक समयमें वस्तुके अनेक धर्मोमेंसे किसी एक धर्मकी मुख्य तासे वचनका प्रयोग करता है । ऐसे समय में कथनमें विवक्षित धर्मकी मुख्यता रहती हैं और शेष धर्मोकी गौणता, अतः इन गौण धर्मोका द्योतक स्यात् (कथंचित् ) शब्द समस्त वाक्योंके साथ गुप्तरूपसे रहता ही है । आगे शास्त्रप्रसिद्ध छह जन्मान्धोंका दृष्टान्त देकर वस्तुके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org