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चतुर्थं खण्ड : ४७५ 'जो निमित्तान्तरके बिना होवे उसे स्वभाव कहते हैं और जो दूसरेके निमित्तसे होय उसे विभाव कहते हैं ( पृ० ४० ) । '
(ख) आगे दूसरे लक्षण के अनुसार द्रव्यकी प्रसिद्धि करते हुए सत्, सत्ता और अस्तित्व इन तीनोंको एकार्थ बतलाकर पञ्चाध्यायीकी 'तत्त्वं सल्लाक्षणिक' इत्यादि कारिका तथा पञ्चास्तिकायकी 'सत्ता सव्वपयत्था' इत्यादि गाथाका अवलम्बन लेकर सत्ताका विस्तारसे विचार किया है (४१ से ४६ ) |
इसी प्रसंगसे उत्पाद, व्यय और धौव्य किसके होते हैं इसका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि'उत्पाद व्यय धौव्य ये तीनों द्रव्यके नहीं होते किन्तु पर्यायोंके होते हैं। परन्तु पर्याय द्रव्यका ही स्वरूप है, इस कारण द्रव्यको भी उत्पाद व्यय - ध्रौव्यस्वरूप कहा है (४६) ।'
आगे (पृ० ५६) पर्यायके विशेष स्पष्टीकरणके प्रसंगसे गुणांशका नाम ही अविभागप्रतिच्छेद है यह बतलाकर उसका विशेष स्पष्टीकरण करते हुए एक महत्वपूर्ण सूचना की है
'किसी गुणकी जपन्य अवस्था और उसका जधन्य अन्तर समान होते हैं, उस गुणकी जघन्य अवस्था तथा जघन्य अन्तर इन दोनोंको अविभागप्रतिच्छेद कहते हैं। परन्तु किसी गुणमें उस गुणका जघन्य अन्तर उरा गुणकी जघन्य अवस्थाके अनन्तवें भाग होता है । उस गुणमें उस जघन्य अन्तरको ही अविभागप्रतिच्छेद कहते है। ऐसी अवस्थामें उस गुणकी जपन्य अवस्थामें अनन्त अविभागप्रतिच्छेद कहे जाते हैं (पु० ५७ ) "
(ग) द्रव्यके तीसरे लक्षणमें उसे गुण- पर्यायवाला प्रसिद्ध कर गुणोंको सामान्य और विशेषके भेद से दो प्रकारका बतलाया गया है । सामान्य गुणोंमें छह गुण मुख्य हैं— अस्तित्व, द्रव्यत्व, वस्तुत्व, अगुरुलघुत्व, प्रमेयत्व और प्रदेशवत्व (५७) ।
आलापपद्धतिमें इन छह सामान्य गुणोंके सिवाय चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तस्व मे चार सामान्य गुण और परिगृहीत किये हैं । इनमें से प्रत्येक द्रव्यमें आठ-आठ सामान्य गुण होते हैं । स्पष्टीकरण सुगम है। वहाँ विशेष गुणोंकी कुल संख्या १६ दी है उनमें चेतनत्व आदि उक्त चार गुण विशेष गुणोंमें भी परिगणित किये गये हैं ।
यहाँ यद्यपि द्रव्यके उक्त प्रकारसे तीन लक्षण कहे गये हैं, परन्तु उनमें एकवाक्यता किस प्रकार है इसे स्पष्ट करते हुए गुरुजी लिखते हैं
'यद्यपि इन तीनों लक्षणों में परस्पर विरोध नहीं है और परस्पर एक-दूसरेके अभिव्यञ्जक हैं, तथापि ये तीनों लक्षण द्रव्यको भिन्न-भिन्न शक्तियों की अपेक्षासे कहे हैं । अर्थात् पहले द्रव्यके छह सामान्य गुण कह आये हैं । उनमें एक द्रव्यत्व, दूसरा सत्त्व ओर तीसरा अगुरुलघुत्व है । सो पहला लक्षण द्रव्यत्व गुणकी मुख्यतासे, दूसरा लक्षण सत्व गुणकी मुख्यतासे और तीसरा लक्षण अगुरुलघुत्वगुणकी मुख्यतासे कहा है (६२) ।'
आगे गुणकी विशेष मीमांसा करते हुए लक्षणभेदसे प्रत्येक गुण द्रव्यके जितने क्षेत्रको व्याप कर रहता है। उतने ही क्षेत्र में समस्त गुण रहते हैं यह स्पष्ट किया गया है । गुण नित्य हैं या अनित्य इसकी मीमांसा करते हुए बतलाया है कि -- ' जब गुणों । भिन्न द्रव्य अथवा पर्याय कोई पदार्थ नहीं हैं, किन्तु गुणोंके समूहको ही द्रव्य कहते हैं तो जैसे द्रव्य नित्यानित्यात्मक है उसी प्रकार गुण भी नित्यानित्यात्मक स्वयं सिद्ध है । वे 'गुण यद्यपि नित्य हैं तथापि बिना यत्नके प्रतिसमय परिणमते हैं और वह परिणाम उन गुणोंकी ही अवस्था है, उन परिणामों (पर्यायों) की गुणोंसे भिन्न सत्ता नहीं है (६३) ।'
गुणों के समुदायको द्रव्य कहते हैं, द्रव्यके इस लक्षणके अनुसार जितनी भी पर्यायें होती हैं उन्हें गुणपर्याय कहना ही उचित है। उनके द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय ऐसे भेद करना उचित नहीं है ? यह एक शंका है। इसका
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