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४५४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
रागादि परिणम था, वह जाता है, “शुद्ध स्वरूपमात्र शुद्ध चेतनारूप जीव द्रव्य परिणमता है, उसका नाम स्वरूपाचरण चारित्र कहा जाता है, ऐसा मोक्षमार्ग है।'
शुभ-अशुभ क्रिया आदि बन्धका कारण है इसका निर्देश करते हुए कलश १०७ की टीका लिखा है
'जो शुभ-अशुभ क्रिया, सूक्ष्म-स्थूल अन्तर्जल्प बहिःजल्परूप जितना विकल्परूप आचरण है वह सब कर्मका उदयरूप परिणमन है, जीवका शुद्ध परिणमन नहीं है, इसलिए समस्त ही आचरण मोक्षका कारण नहीं है, बन्धका कारण है।'
विषय-कषायके समान व्यवहार चारित्र दुष्ट है इसका स्पष्टीकरण करते हुए कलश १०८ में लिखा है
'यहाँ कोई जानेगा कि शुभ-अशुभ क्रियारूप जो आचरणरूप चारित्र है सो करने योग्य नहीं है उसी प्रकार वर्जन करने योग्य भी नहीं है ? उत्तर इस प्रकार है-वर्जन करने योग्य है। कारण कि व्यवहार चारित्र होता हुआ दुष्ट है, अनिष्ट है, घातक है, इसलिए विषय-कषायके समान क्रियारूप चारित्र निषिद्ध है।'
(कलश १०९) ज्ञानमात्र मोक्षमार्ग कहनेका कारण
'कोई आशंका करेगा कि मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र इन तीनका मिला हुआ है, यहाँ ज्ञानमात्र मोक्षमार्ग कहा सो क्यों कहा ? -उसका समाधान ऐसा है-शुद्धस्वरूप ज्ञानमें सम्यग्दर्शन सम्यक्त्रारित्र सहज ही गर्भित है, इसलिए दोष तो कुछ नहीं, गुण है ।
(कलश ११०) मिथ्यादृष्टिके समान सम्यग्दृष्टिका शुभ क्रियारूप यतिपना भी मोक्षका कारण नहीं है इसका खुलासा
'यहाँ कोई भ्रान्ति करेगा जो मिथ्यादृष्टिका यतिपना क्रियारूप है सो बन्धका कारण है, सम्यग्दृष्टि है जो यतिपना शुद्ध क्रियारूप सो मोक्षका कारण है। कारण कि अनुभव ज्ञान तथा दया व्रत तप संयमरूप क्रिया दोनों मिलकर ज्ञानावरणादि कर्मका क्षय करते है। ऐसी प्रतीति कितने ही अज्ञानी जीव करते है। वहाँ समाधान ऐसा-जितनी शुभ-अशुभ क्रिया, बहिर्जल्परूप विकल्प अथवा अन्तर्जल्परूप अथवा द्रव्योंका विचाररूप अथवा शुद्ध स्वरूपका विचार इत्यादि समस्त कर्म बन्धका कारण है । ऐसी क्रियाका ऐसा ही स्वभाव है । सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टिका ऐसा भेद तो कुछ नहीं। ऐसी करतूतिसे ऐसा बन्ध है। शुद्धस्वरूप परिणमनमात्रसे मोक्ष है । यद्यपि एक ही कालमें सम्यग्दृष्टि जीवके शुद्ध ज्ञान भी है, क्रियारूप परिणाम भी है। तथापि क्रियारूप है जो परिणाम उससे अकेला बन्ध होता है, कर्मका क्षय एक अंशमात्र भी नहीं होता है। ऐसा वस्तुका स्वरूप, सहारा किसका । उसी समय शुद्ध स्वरूप अनुभव ज्ञान भी है। उसी समय ज्ञानसे कर्मक्षय होता है, एक अंशमात्र भो बन्ध नहीं होता है । वस्तुका ऐसा ही स्वरूप है।'
(कलश ११२) समस्त क्रियामें ममत्वके त्यागके उपायका कथन
'जितनी क्रिया है वह सब मोक्षमार्ग नहीं है ऐसा जान समस्त क्रियामें ममत्वका त्यागकर शुद्धज्ञान मोक्षमार्ग है ऐसा सिद्धान्त सिद्ध हुआ।'
(कलश ११४) स्वभावप्राप्ति और विभावत्यागका एक ही काल है
'जिस काल शुद्ध चैतन्य वस्तुको प्राप्ति होती है उसी काल मिथ्यात्व-राग-द्वेषरूप जीवका परिणाम मिटता है, इसलिए एक ही काल है. समयका अन्तर नहीं है।'
__ (कलश ११५) सम्यग्दृष्टि जीवके द्रव्यास्रव और भावास्रवसे रहित होनेके कारणका निर्देश
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