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पुरुषार्थसिद्धय पाय: एक अनुशीलन
ऐसा शिष्ट सम्प्रदाय है कि सर्वप्रथम इष्टदेवकी द्रव्य भाव वन्दनापूर्वक प्रयोजनीय कार्यको प्रारम्भ करना चाहिए । प्रकृतमें उल्लेखनीय कार्य ग्रन्थ रचना है, क्योंकि क्रमसे मूल श्रुतके विच्छिन्न होनेपर इस कालमें मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति अक्षुण्ण बनी रहे इस इष्ट प्रयोजनको सामने रखकर आरातीय आचार्योंने भव्य जीवों के हितार्थ आगमानुसारी विविध शास्त्रोंकी रचनाकर मोक्षमार्गकी प्रवृत्तिको अक्षुण्ण बनाये रखा है ।
उनमें चरणानुयोग के अनुसार प्रवृत्ति बनाये रखनेके लिये चारित्रपाहुड, मूलाचार और रत्नकरण्डश्रावकाचार आदि जितने मूल और तदनुसारी शास्त्र लिखे गये हैं, उनमें अन्यतम ग्रन्थ पुरुषार्थसिद्धघुपाय एक है । यह आचार्य अमृतचन्द्र की मौलिक कृति है ।
मंगलाचरण
इसका 'तज्जयतिपरं ज्योतिः' इत्यादि प्रथम मंगल श्लोक है । इस द्वारा सर्वोत्कृष्ट ज्योतिस्वरूप केवलज्ञान जय-जयकार करते हुए इस द्वारा समग्र जिनागमके सारको सूचित कर दिया गया है ।
इस मंगलसूत्र में ज्ञानको दर्पणकी उपमा दी गई है । जो पदार्थ दर्पण में प्रतिबिम्बित होते हैं वे न तो दर्पणके पास आते हैं, और न ही दर्पण ही उनके पास जाता है । किन्तु उन पदार्थों में प्रतिबिम्बित होनेकी सहज योग्यता है और अपने स्वच्छरूप गुणके कारण दर्पण में 'योग्य' क्षेत्रमें स्थित उन पदार्थोंको प्रतिबिम्बित करनेकी योग्यता है । उनके दर्पण में प्रतिबिम्बित होनेका यही कारण है । ठीक यही स्थिति ज्ञानकी है । तीनों कालों और तीनों जगत् में स्थित जितने भी पदार्थ थे, हैं और रहेंगे । उनका ज्ञानके साथ सहज ही ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है | ज्ञानमें सहज ही ऐसी सामर्थ्य है कि वह स्वभाव विप्रकृष्ट, कालविप्रकृष्ट और क्षेत्र विप्रकृष्ट किसी प्रकार के पदार्थ क्यों न हों उन सबको वर्तमानवत् जानता है। ज्ञानकी एक उपमा दीपककी भी दी जाती है । जैसे दीपक परको प्रकाशित करते हुए स्वयंको भी प्रकाशित करता है । ज्ञानका भी वही स्वभाव है । वह अन्य समस्त ज्ञेयोंको अपने ज्ञान पर्याय रूपसे जाननेके साथ स्वयंको भी जानता है । ऐसे मंगलस्वरूप सम्यग्ज्ञानको हमें प्राप्ति हो और ऐसी कामना करना ही उसका जय-जयकार है ।
एकान्तनयों के विलास अनन्त हैं । एक मात्र अनेकान्त ही उनके विरोधको दूर करनेमें समर्थ है । यह एक सिद्धान्त भी है और स्वयं वस्तुका स्वरूप भी । जैनदर्शनका यह प्राण है । जैन सिद्धान्तको हृदयंगम करने के लिए अनेकान्त के स्वरूपका सम्यग्ज्ञान होना जरूरी है । इसी तथ्यको हृदयंगम कर आचार्यदेवने ज्ञानस्वरूप आत्माका या केवलज्ञानका जय-जयकार करनेके अनन्तर अनेकान्त सिद्धान्तको द्रव्य-भाव नमस्कार किया है ।
आगे तीनों लोकोंके नेत्रस्वरूप परमागमको बुद्धिपूर्वक जाननेका निर्देश करके आचार्यदेवने पुरुषार्थ सिद्धयुपाय नामक शास्त्र ( आगम ) का उद्धार करनेकी मंगल सूचना की है । इस शास्त्रको कहनेकी प्रतिज्ञा सूचक श्लोक में उपाधियते' क्रियाका प्रयोग हुआ है । इस द्वारा शास्त्रकार यह सूचित कर रहे है कि इस द्वारा हम अपने अभिप्रायको नहीं व्यक्त कर रहे हैं । किन्तु भगवान् महावीर और गौतम गणधरसे लेकर आचार्य परम्परासे पुरुष अर्थात् चेतनस्वरूप आत्माके प्रयोजनको सिद्ध करनेका जो उपाय निरूपित होता आ रहा है, उसका ही मैं (अमृतचन्द्र आचार्य) उद्धार करने वाला हूँ, इस द्वारा कोई नई बात नहीं कही जा रही है ।
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