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चतुर्थ खण्ड : ४६१ पुरुषार्थसिद्धिका उपाय
लोकमें जड़ और चेतन दोनों प्रकारके पदार्थ पाये जाते हैं। उनका स्वरूप भी भिन्न-भिन्न है । अपने अज्ञानके कारण अनादिसे यह जीव विपरीताभिनिवेशके वशीभूत होकर निजतत्वको भूला हुआ है । किन्तु जब यह जीव पर और परके निमित्तसे होनेवाले परभावोंसे भिन्न, अपने ज्ञातादृष्टा स्वरूपको जानकर उसमें अविचल स्थितिको प्राप्त होता है तब ही इस जीवने पुरुषार्थकी सिद्धिका उपाय अपनेमें हृदयंगम किया, यह कहा जा सकता है । जो पूर्वरूपसे रत्नत्रय स्वरूप होनेसे, पाप क्रियासे भिन्न आत्मकार्यको साधनेमें समर्थ मुनियोंमें पूर्णरूपसे लक्षित होता है । सम्यक् प्रकारसे पुरुषार्थकी सिद्धिका, इससे भिन्न, अन्य कोई दूसरा मार्ग नहीं है । उपदेश देनेका क्रम
जिनागममें जिन चार अनुयोगोंकी प्ररूपणाकी गयी है, उनमेंसे प्रथमानुयोगमें तो पुण्य पुरुषों की कथा की मुख्यतासे प्ररूपणा है। इसका प्रयोजन इतना ही है कि संसारी जीव पुण्य-पापके फलको जानकर, उनसे विरक्त हो परमार्थके मार्गमें लगे। करणानुयोगमें लोकालोककी प्ररूपणाके साथ गुणस्थान और मार्गणा स्थान आदिको माध्यम बनाकर परिणामोंकी जाति की प्ररूपणा मुख्यतासेकी गयी है। चरणानुयोगमें कैसे उठे कैसे बैठे, कैसे बोले, दूसरेसे कैसा व्यवहार करे आदिकी मुख्यतारो वह सब प्रवृत्ति प्ररूपित की गयी है जो निमित्तरूपसे स्वरूप प्राप्तिमें व्यवहारसे साधक मानी गयी है। द्रव्यानुयोगका क्षेत्र बड़ा है। उसमें छ द्रव्य पाँच अस्तिकाय आदिकी विवेचनाके साथ अध्यात्मके रूपमें साक्षात् मोक्षमार्गको प्ररूपणा भी उसका विषय है।
इन चारों अनुयोगोंमें पठन पाठनकी दृष्टिसे भी चरणानुयोगको प्रथम स्थान प्राप्त है । तथा मोक्षमार्ग में प्रवेश करनेकी दृष्टिसे भी जीवनका निर्माण हो इसमें चरणानुयोगके अनुसार प्रवृत्ति करना प्रथम कर्तव्य माना गया है। क्योंकि आगममें उपयोगको तीन प्रकारका निरूपित किया गया है-अशुभोपयोग, शुभोपयोग और शुद्धोपयोग। विषयकषायरूप प्रवृत्ति कार्यो में उपयोगका लगना ही अशुभोपयोग है। शुभोपयोगमें शुभाचारकी मुख्यता है । अशुभोपयोगी तो मोक्षमार्गका अधिकारी होता ही नहीं। यद्यपि शुभाचाररूप प्रवृत्ति स्वयं धर्म अथवा परमार्थ मोक्षमार्ग नहीं है और न शुद्धोपयोगका साक्षात् साधक ही है, फिर भी शुभोपयोग शुद्धोपयोगका व्यवहारसे साधक होनेसे मोक्षमागमें उसकी उपयोगिता प्रमुखतासे स्वीकारकी गयी है।
पद्धतिको ध्यानमें रखकर प्रारंभसे ही गरुजन अपने शिष्योंको सर्वप्रथम पूर्ण आचारकी शिक्षा तो देते ही थे। उसमें प्रवत्त होनेके लिये प्रेरणा भी करते थे। इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर आ० अमवचन्द्र देवने पाप क्रियासे विरुद्ध व्रतरूप चारित्रको अंगीकार करनेका और उसकी शिक्षा देनेका निर्देश प्रस्तुत ग्रंथमें किया है। यह मनियोंकी आलौकिक वृत्ति है। जो शिष्य कदाचित् इसे धारण करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करता है उसे ही श्रावकाचारका उपदेश देनेकी परंपरा है। कदाचित् कोई आचार्य इसके विरुद्ध उपदेश देता है तो वह ग्रन्थकारके अभिप्रायानुसार जिनमार्गमें गणतीय अपराध माना गया है।
इस कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि आचारकी शिक्षाको गौण करके मात्र करणानुयोग या द्रव्यानुयोगगर्भ अध्यात्मका पठन-पाठन करना कराना मोक्षमार्गमें हितावह नहीं है। उससे कदाचित शिष्यके उन्मार्गी बननेकी संभावना अधिक लगी रहती है। प्ररूपणामें क्रमभंगका कारण
आगे समग्र ग्रंथ दो अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्यायमें श्रावकधर्मकी प्ररूपणाकी गयी है और दूसरे में मुनिधर्मकी । सवाल यह है कि स्वयं ग्रन्थकार जब यह लिखते हैं कि सर्वप्रथम मुनिधर्मका उपदेश देना चाहिये । ऐसी अवस्थामें वे ही स्वयं मुनिधर्मकी प्राथमिकताको गौणकर सर्वप्रथम गृहस्थधर्मके उपदेशका निर्देश
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