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४६४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
यहाँ आठ मूलगुण उपलक्षणके रूपमें कहे गये हैं । विचार करके देखा जावे तो इस प्रकार जिन पदार्थोंको निमित्तकर त्रस जीवोंकी हिंसा सम्भव है या स्थावर कायिकों सम्बन्धी बहुत जीवोंकी हिंसा होना संभव है, ऐसे सब पदार्थोंके भोगोपभोगका नियमरूप में या अभ्यासरूपमें त्याग कर देना चाहिये । इसी तत्त्वको ध्यानमें रखकर जिनपदार्थों का सेवन करनेसे बहुत जीवोंका घात होता है उनके सेवनमें लाभ कुछ भी नहीं होता। ऐसे मूली, गाजर, आलू, सकरकंद, मीठा, अदरक, लहसुन, नीम व केतकी के फूल आदिका नियमसे त्याग कर देना चाहिये, श्लोक ३९ । इसके साथ ही उसमें जो प्रकृति विरुद्ध आहार है तथा जो मूल शंख भस्म आदि अनिष्ट व अनुसेव्य पदार्थ हैं उन्हें भी उपभोगमें नहीं लाना चाहिये । तथा मर्यादाके बाहर अचार, पापड़, बड़ी आदिका ग्रहण इन्हीं सब पदार्थोंमें हो जाता है ।
यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि भोगोपभोग परिमाणव्रतका निर्देश करते समय आ० समन्तभद्रते इन सब पदार्थोंके त्यागका विधान किया है, फिर यहाँ अविरत सम्यग्दृष्टि के इन सबके त्यागका निर्देश क्यों किया जा रहा है ? समाधान यह है कि जैनधर्मके अनुसार श्रावककी भूमिका तब ही बनती है जब वह श्रावकोचित आहार-विहार में सावधान होता है। दूसरी बात यह है कि भोगोपभोग परिमाण व्रतका निरतिचार पालन किया जाता है । जबकि अभ्यास दशामें विवेककी मुख्यता रहती है ।
प्रायः एलोपैथिक पद्धति आदिसे जो दवाईयाँ तैयार होती हैं उनमें प्राणियोंके सत्व आदिके मिश्रणकी अधिक संभावना रहती है । इनमें अलकोहलका उपयोग तो होता ही है । और अलकोहल शराबका छोटा भाई है । आसव, अरिष्ट आदि भी इसी श्रेणी में आते हैं । इसलिए आहार-विहार में इन सबका विचार करके ही श्रावकको अपना जीवनयापन करना चाहिये । तब ही जाकर उसके द्वारा अहिंसा व्रतका पालन हो सकता । भले ही अभ्यासरूपमें हो, आहार-विहार में इन सब बातों का ध्यान रखना आवश्यक है
धर्म-दया- सुखके नाम पर हिंसाका निषेध
अहिंसाधर्म, अमृतत्वकी प्राप्ति में परम रसायनके समान है । इसलिये हमारे द्वारा किसी भी प्रयोजनसे हिंसा न हो जाये, इस बातको ध्यान में रखकर देवताके निमित्त बकरे आदिकी हिंसा नहीं करनी चाहिये । दूसरे जीवोंकी दया पालने के अभिप्रायसे हिंस्र सिंस्रादि जीवोंकी हिंसा नहीं करनी चाहिये । तथा परलोकमें यह अधिक सुखका भोक्ता बनेगा, इस खोटे अभिप्रायसे गुरु आदिकी हिंसा नहीं करनी चाहिये । तात्पर्य यह है कि किसी भी प्रयोजनसे की गई हिंसा दुर्गतिका ही कारण बनती है ।
सकलचारित्र
पहले हम विकल चारित्रका संक्षेपमें निर्देश कर आये हैं । वह अपवाद मार्ग है । उत्सर्ग मार्ग इससे भिन्न है | सकल चारित्र उसका दूसरा नाम है। इसे यदि पूर्ण स्वावलम्बनकी दीक्षा कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी ।
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श्रावककी ग्यारह प्रतिमाएँ हैं । अन्तिम प्रतिमाका नाम उद्दिष्ट त्याग है | श्रावकने अन्य किसीको निमित्त कर आहार न बनाकर उसने स्वयंके लिए जो आहार बनाया है, इस प्रतिमा वाला ऐसे आहारको ही स्वीकार करता है, मात्र इसीलिए इस प्रतिमाका नाम उद्दिष्ट त्याग है इस प्रतिमाके दो भेद हैं- क्षुल्लक और ऐलक । क्षुल्लकके उत्तरीय वस्त्र के साथ लंगोटी मात्र परिग्रह शेष रहता है । जब कि ऐलकके उत्तरीय वस्त्रका भी त्याग हो जाता है । फिर भी अभी उसके घरसे मुनिकी शरण में जानेपर भी लंगोटीका विकल्प बना हुआ रहता है । जब कि जिसने पूर्ण स्वावलम्बनकी दीक्षाके साथ मुनि उसके लंगोटी भी छूट जाती है । वह किसी जीर्ण-शीर्ण मकानमें रहे या
धर्मको अपना जीवन बनाया है। गिरि गुफामें किन्तु वह दोनोंको
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