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विविध टीकायें
(१) पुरुषार्थसिद्ध युपायकी संस्कृतमें एक टीका मिलती है । यह श्री दि० जैन उदासीन आश्रम, तुकोगंज इंदौर के शास्त्र भण्डारकी अनुपम निधि है । इसकी कुल पत्र संख्या ५५ है, साइज २०x१२ अंगुल है । प्रत्येक पृष्ठ में १४ पंक्तियाँ हैं । प्रत्येक पंक्ति में लगभग ४४-४५ अक्षर हैं । बीच-बीच में मूल श्लोक बड़े-बड़े अक्षरोंमें लिखे गये हैं । उसका प्रथम मंगलाचरण है
चंद्रप्रभं जिनं वाणीं नत्वा गुरुपदांबुजम् । पुरुषार्थसिद्धयुपाये कुर्वे टीकां मनोहराम् ॥
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इसके बाद पुरुषार्थसिद्धयुपायके मंगल श्लोककी उत्थानिकाका निर्देश करके टीकाकार लिखता है“अथ श्रीमन्निर्ग्रथाचार्यवर्यः श्रीमदमृतचंद्रभट्टारकः कलिकाल गणधरदेवः भव्यपुंडरिकेभ्यः पुरुषार्थसिद्धयुपायं प्रकाशयन्निष्ठदेवताविशेषं आशिर्वादात्मकमंगलं कथयन्नमस्करोति ।"
चतुर्थखण्ड : ४६७
टीका अन्तमें लिखा है
"अयं पुरुषार्थसिद्धयुपायः ग्रन्थः इति । अमृतचन्द्रसूरीणां अमृतचन्द्रभट्टारकाणां इयं कृतिः यं कर्तव्यता । अस्य पुरुषार्थसिद्धयुपायस्यापरनाम जिनरहस्यकोशः वर्तते इति कथनेन समाप्तम् ॥ २२ ॥ इति व्याख्या समाप्ता । इत्यमृतचन्द्रसूरीणां कृति पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयम् । नाम जिनप्रवचन रहस्यकोशः । मिति ॥ २२७॥ | "
समाप्त
मंगलश्लोकी इस उत्थानिका और समाप्ति सूचक अंतिम प्रशस्तिसे पता लगता है कि मूलग्रन्थके लेखक निर्ग्रन्थाचार्य थे और उस समय इनकी ख्याति कलिकाल गणधरदेव के रूपमें की जाती थी । इस उत्थानिकासे ऐसा भी मालूम होता है कि इनका मूल निवास गुजरात प्रदेश होना चाहिये, क्योंकि 'आचार्य' के स्थानपर 'सूरि' पदका उपयोग गुजरात में विशेष रूपसे होता रहा है । हमारे सामने मूलसंघ और काष्ठासंघ दोनों की आचार्य तथा भट्टारक पट्टावलियाँ उपस्थित हैं । उनके देखनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि इन्हें भट्टारक विशेषण पूज्यके अर्थमें प्रयुक्त हुआ है । ये किसी पट्टके भट्टारक नहीं थे ।
ग्रन्थका नाम पुरुषार्थसिद्धयुपाय तो है ही । ग्रन्थकारने स्वयं ही इस नामका तीसरे श्लोक में उल्लेख किया है । संस्कृत टीकाकी अन्तिम प्रशस्तिपर दृष्टिपात करनेसे ऐसा भी प्रतीत होता है कि इसका दूसरा नाम 'जिन प्रवचन रहस्यकोश' भी रहा है ऐसा इसपर लिखी गई संस्कृत टीकाकी अन्तिम प्रशस्तिसे ज्ञात होता है । प्रकृतमें ऐसा लगता है कि आचार्य अमृतचन्द्रदेवने जितनी भी अपनी स्वतन्त्र रचनाओंको मूर्त रूप दिया है उनकी मौलिकताको ध्यान में रखकर उनको दूसरा नाम देनेकी पुरानी परम्परा रही है । किन्तु यहाँ यह कहना कठिन है कि इसका निर्वाह वे स्वयं करते रहे या अन्यके द्वारा उनकी स्वतन्त्र रचनाओं का दूसरा नाम सूचित किया गया है । उदाहरणार्थ लघुतत्त्वस्फोट ग्रन्थका दूसरा नाम 'शक्तिमणितकोश' उसके प्रत्येक अध्यायकी समाप्ति सूचक अञ्चलिकामें दिया गया है तथा प्रस्तुत ग्रन्थ ( पुरुषार्थसिद्धयुपाय) का दूसरा नाम इसपर लिखी गई संस्कृत टीकाकी समाप्तिसूचक प्रशस्तिसे ज्ञात होता है । है यह महत्त्वकी बात कि इनकी जो यह दो रचनाएं हैं उनको दूसरा नाम देनेकी परम्परा पुरानी जान पड़ती है ।
वैसे इन्होंने जो समयप्राभृतकी आत्मख्याति टीका लिखी है उसके प्रथम मंगलसूत्रकी टीकामें उसे ( समयप्राभृतको) ये 'अर्हत्प्रवचनका अवयव' जैसे गरिमागम शब्दों द्वारा स्वयं सम्बोधित कर रहे हैं । लगता है कि तत्त्वार्थवार्तिक में 'गुण-पर्ययवद्द्रव्यम्' (सू० ३७) सूत्रकी व्याख्या करते हुए जो शंका समाधान आयी है,
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