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४६८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ उसमें 'उक्तं हि' कह करके जो 'अर्हत्प्रवचनने द्रव्याश्रया निगुर्णागुणाः' कहा गया है, वह अन्य किसी शास्त्रके विषयमें न कहकर पूर्वोक्त न्यायसे लगता है कि स्वयं भट्टाकलंकदेवने तत्त्वार्थसूत्र अ० ५के ४१वें शंकाके इसी सूत्रके लिये कहा है।
इस ग्रन्थकी जो संस्कृत टीका हमारे सामने है, वह साधारण संस्कृतमें लिखी गयी है। फिर भी इससे कुछ महत्त्वपूर्ण श्लोर्कोके अर्थ पर जो प्रकाश पड़ता है , उसे संक्षेपमें यहाँ दे रहे हैं
उदाहरणार्थ ५वें श्लोककी टीका करते हुए लिखा है "इहास्मिन् ग्रन्थे जिनमते वा भूतार्थं सत्यं निश्चयं प्रदेशभेद रहितं वर्णयंति । अपरं अभतार्थ असत्यं व्यवहारं प्रदेशभेदसहितं वर्णयंति ।"निश्चयनया द्रव्यस्थिताः व्यवहारनया पर्यायस्थिताः । द्रव्यस्थितं सत्यं पर्यायस्थितमसत्यम् ।।
६४ श्लोककी टीका करते हुए लिखा है-“अबुधस्य मूर्खस्यबोधनार्थं ज्ञानार्थं अभूतार्थ व्यवहारमार्ग देशयंति । यः केवलं एकंव्यवहारमेव अवैति जानाति तस्यव्यवहारज्ञस्य देशनानास्ति उपदेशोनास्ति ।"
८वें श्लोककी टीका करते हुए लिखा है-“यः शिष्यः बुद्धिमान व्यवहारं च निश्चयं च व्यवहारनिश्चयो नयौ प्रबुद्धयज्ञात्वातत्त्वेन निश्चयेन मध्यस्थः भवतिकर्मभिः अनाश्रितो भवति स एव शिष्यः देशनायाः उपदेशस्य अविकलं पूर्णफलं अविनश्वरं प्राप्नोति लभते । भावार्थोऽयं बुद्धिमान् शिष्यः यथार्थ रहस्येन मध्यस्थोभत्वा कमानव रहितो भवति । सबद्धिमान पण्यपापरूपपरिणतित्यागात मध्यस्थ: सन मोक्षादिरूपं फलं प्राप्नोति इत्यर्थः ।
२१८वें श्लोककी टीका करते हुए लिखा है-"सम्यक्त्वेचारित्रे सति तीर्थकरस्य आहारकशरीरस्यबंधकौबंधौभवतः सम्यक्त्व चारित्राभ्यांविनांतीर्थकराहारकौनस्यातां इत्यर्थः । यत्र तौ द्वौ योगकषायौ नास्ति न तिष्ठेत् । पुनरस्मिन् दर्शनज्ञानचारित्रे सति तत् पूर्वोक्तं तीर्थकराहारककर्मबंधरूपंउदासीनं योगकषायाभ्यां दर्शनादौसत्यपि तीर्थंकराहारक कर्मबंधो न भवतीत्यर्थः ।।
यह कतिपय श्लोकोंकी संस्कृत टीकाका आशय है। इसपर दृष्टिपात करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृत टीकाकार मूल श्लोकोंके भावको स्पष्ट करने में सफल रहा है। मात्र २१८वें श्लोकका अर्थ प्रांजल शब्दोंमें स्पष्ट नहीं हो सका । लिपिकारकी असावधानीसे ऐसा हआ हो तो कोई आश्चर्य नहीं। अन्य टीकाएँ
(१) अन्य टीकाओंमें सबसे प्रमुख आचार्यकल्प पण्डित टोडरमल जी सा० की टीका है। यह ढूँढारी भाषामें लिखी गई है। वह हमारे सामने नहीं है। मात्र उसका हिन्दी अनुवाद हमारे सामने अवश्य है । गुजरातीसे हिन्दीमें इसका अनुवाद श्री वैद्य गम्भीरचन्द जैन, अलीगंज एटा वालोंने किया है । ढूँढारीसे गुजराती भाषामें इसका अनवाद ब्र० भाई श्री ब्रजलाल गिरधरलालजी शाहने किया था । हिन्दी अनुवाद हमारे सामने है। इसमें पं० जी ही के शब्दोंमें मंगलाचरण दिया गया है। उसके बाद एक कवित्त द्वारा 'निश्चर्यकान्त और व्यवहारैकान्तका निषेध करके जो निश्चय मोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्गको भिन्न-भिन्न दो जानते हैं उसका निषेध करके दान, पूजा, व्रत आदिको मोक्षमार्ग मानना व्यवहार है ऐसा जानकर साक्षात् मोक्षमार्गके निमित्तरूपमें उन्हें स्वीकार करते हैं वे ही परमार्थके भागी होते हैं" यह तथ्य स्पष्ट किया गया है।
आगे ग्रन्थके प्रत्येक श्लोकका अन्वयार्थ, टीका और भावार्थ देकर ग्रन्थका हार्द स्पष्ट किया गया है ।
पहिले हम संस्कृत टीकाके कतिपय श्लोकों का आशय स्पष्ट कर आये हैं। यहाँ अध्ययनकी दृष्टिसे क्रमसे उन्हीं श्लोकोंका हार्द पंडितजी ही के शब्दोंमें दे रहे हैं ।
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