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४७२ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
१. प्रकृत प्ररूपणा किस निक्षेपार्थका अवलम्बन लेकर की जा रही है।
२. वह निक्षेपार्थं किस नयका विषय है ।
अध्येता नय-निक्षेपकी उक्त प्रक्रियाका अवलम्बन ग्रहण कर अप्रकृत अर्थका निराकरण और प्रकृत अर्थका ग्रहण कर सके, यही उक्त कथनका उद्देश्य है । प्राचीन ग्रन्थोंमें इस परम्पराका निर्वाह अक्षुण्ण रूपसे पाया जाता है, किन्तु उत्तरकालीन ग्रन्थोंमें इसका निर्वाह क्वचित् कदाचित् ही हुआ है। पर गुरुजीने अपने इस ग्रन्थमें लक्षण, प्रमाण, नय और निक्षेपार्थका ज्ञान कराना आवश्यक समझकर सर्वप्रथम इन विषयोंका स्वरूप विवेचन किया है। अतएव प्रत्येक विचारक समीक्षकको अधिकार नियोजनके क्रममें औचित्य स्वीकार करना पड़ेगा। गुरुजी सिद्धान्त विषयके मर्मज्ञ विद्वान् थे, अतः विषयनियोजनमें उन्होंने शास्त्रीय क्रमका पालन किया है। सिद्धान्तोंकी प्रतिष्ठापना सरल और सहजरूपमें की गयी है। सामान्यस्तरके पाठक भी गूढ विषयोंको हृदयंगम कर सकते हैं।
किसी भी वस्तुका ज्ञान दो प्रकारसे किया जाता है-एक तो उसके ज्ञान करानेमें प्रयोजक स्वरूपकी जानकारी द्वारा और दूसरे उसके अविनाभावी परिकर द्वारा इनमेंसे प्रथमकी आत्मभूत लक्षणसंज्ञा है और दूसरेकी अनामभूत । विवक्षित वस्तुका वर्तमानमें ज्ञान करते समय ये दोनों ही लक्षण अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव इन तीनों दोषोंसे रहित होने चाहिए; तभी उन द्वारा विवक्षित वस्तुका ठीक तरहसे ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। प्रस्तुत ग्रन्थके प्रारम्भमें (१-४ पृ० तक) गुरुजीने उक्त तथ्यका स्पष्ट निरूपण किया है । २ ज्ञानके दो भेद हैं- सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान ये दोनों ही ज्ञान प्रमाण और नयके भेदसे दोदो प्रकारके हैं। आचार्य पूज्यपादने सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञानमें क्या अन्तर है इसका ठीक तरहसे ज्ञान करानेके अभिप्रायसे तीन प्रकारके विपर्यासोंका निर्देश किया है— कारणविपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्वरूपविपयस " जो ज्ञान इन तीन प्रकारके विपर्यासोंको लिये हुए है उसकी मिथ्याज्ञानसंज्ञा है और इससे भिन्न दूसरे प्रकारके ज्ञानकी सम्यग्ज्ञान संज्ञा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस दृष्टिसे सम्यग्ज्ञानके पाँच भेद है - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान तथा मिथ्याज्ञानके तीन भेद हैं- कुमतिज्ञान कुश्रुतज्ञान और विभंगज्ञान इन्हीं दोनों प्रकारके ज्ञानोंको क्रमसे प्रमाणज्ञान और प्रमाणाभास कहते हैं। 'श्रुतविकल्पो नयः' इस वचन के अनुसार नयज्ञानका अन्तर्भाव श्रुतज्ञानमें ही होता है । तदनुसार श्रुतज्ञान सम्यक् और मिथ्या ये दो भेद होनेसे नयज्ञान भी दो भागों में विभक्त हो जाता है । उनमेंसे प्रथमकी नय संज्ञा है और दूसरेको नयाभास कहते हैं ।
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प्रमाणज्ञान और नयज्ञानको थोड़ेमें इन शब्दों द्वारा समझा जा सकता है-अंश, अंशीका भेद किये बिमा समग्र रूप से वस्तुका ज्ञान करानेवाले सम्यग्ज्ञानको प्रमाणज्ञान कहते हैं और अंश द्वारा वस्तुका ज्ञान करानेवाला सम्यग्ज्ञान नयज्ञान कहलाता है । आगम परम्परामें इन ज्ञानोंका इसी रूपमें निरूपण हुआ है । प्रत्येक वस्तु अनेकान्तस्वरूप है, इसलिए तत्स्वरूप वस्तुको समग्र भावसे ग्रहण करनेवाला ज्ञान प्रमाणज्ञान है और विवक्षित एक धर्मको मुख्यतासे वस्तुको ग्रहण करनेवाला सम्यग्ज्ञान नयज्ञान है यह समग्र कथनका निचोड़ है ।
गुरुजीने प्रस्तुत ग्रन्थ (४ से २९० तक ) में प्रमाणकी मीमांसा करते हुए अर्थ, आलोक, सन्निकर्ष और इन्द्रियवृत्ति मे प्रमाण न होकर सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है इसका प्रमाणमे प्रमाणता अभ्यस्त दशामें स्वतः ओर अनभ्यस्त दशामें परत आगे प्रमाणज्ञान कितने प्रकारका है इस तथ्यका स्पष्टीकरण करते १. धवलाटीका पु० १३ पृ० ३-४, पृ० ३८ तथा पृ० १९८ ।
सम्यक् प्रकारसे मीमांसा करनेके बाद आती है इस तथ्यको स्थापना की है। हुए उसके प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो भेद
२. सर्वार्थसिद्धि अ० १ सू० ३२ ।
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