________________
चतुर्थ खण्ड : ४६५
पुद्गलका परिणाम जान कर उनमें ममत्व नहीं करता। वह व्रती जीवनका बाह्य साधन जान कर प्राशुक आहार लेता अवश्य है, पर उसमें खट्टे-मीठेका विकल्प नहीं करता । वह खड़े-खड़े भले ही आहार ले लेता है, पर इसके लिए आसनको स्वीकार नहीं करता । वह सम्मूर्च्छन जीवोंका आश्रय स्थान जानकर दो से लेकर चार माहके भीतर स्वयं हाथोंसे उखाड़कर भले ही बालोंको अलग कर देता है, पर इसके लिए कैंची या उस्तरेका सहारा नहीं लेता। यह है मुनियोंकी स्वावलम्बन प्रधान अलौकिकी वृत्ति । जिसके भीतर परका आश्रय तो रहता ही नहीं, प्रवृत्तिमें भी बाहर भी पीछी कमण्डलु और पुस्तकको छोड़कर अन्यका आश्रय नहीं रह जाता है।
प्रस्तुत ग्रन्थमें मुनिधर्मके २८ मूलगुणोंका विधिवत् विवेचन तो दृष्टिगत नहीं होता फिर भी उसमें सकल चारित्रके विवेचनके प्रसंगसे १२ तप, ६ आवश्यक, ३ गुप्ति, ५ समिति, १० धर्म, १२ भावना और २२ परिषहजयका संक्षेपमें निर्वचन किया गया है ।
साथ ही इसी प्रसंगसे अन्य बातोंका निर्देश करते हुए यह स्पष्ट रूपसे खुलासा किया गया है कि रत्नत्रय बंधका कारण नहीं है। जो पुरुष अपूर्ण रत्नत्रयकी उपासना करते हैं, उनको जो कर्म बन्ध होता है
। कारण राग है । रत्नत्रय तो मोक्षका ही उपाय है बन्धका उपाय नहीं। इस प्रकार सम्यक् पुरुषार्थकी सिद्धिका उपाय पूर्ण रत्नत्रय ही है।
अंशरूपमें रत्नत्रयका उदय चौथे गुणस्थानसे प्रारम्भ होकर चौदहवें गुणस्थानमें पूर्णता होती है, क्योंकि ऐसा नियम है कि जहाँ इन तीनोंमेंसे कोई एक होता है वहाँ तीनों नियमसे होते हैं । यह कहना कि चौथे गुणस्थानमें सम्यग्दर्शनके साथ सम्यग्ज्ञान तो होता है परन्तु अवत होनेसे उसके चारित्रको एक कण भी नहीं पाया जाता है, उपयुक्त नहीं जान पड़ता, क्योंकि चौथे गुणस्थानमें संयमाचरण चारित्रका निषेध अवश्य किया है, परन्तु इससे सम्यक्चारित्रका निषेध हो गया ऐसा नहीं समझना चाहिए, अन्यथा उसकी देवपूजा, गुरुपूजा, स्वाध्याय आठ मूल गुणोंका धारण करना दान देना आदि सब आचार मिथ्या है आ० कुन्दकुन्दने अपने चारित्र पाहुड़में चारित्रके जो सम्यक्त्वाचरण चारित्र और संयमाचरण चारित्र ये दो भेद किये हैं, वे इसी अभिप्रायसे किये गये हैं कि चौथे गुणस्थानमें भी अंशतः चारित्रका उदय हो जाता है। ग्रन्थकर्ता
___ आचार्य अमृतचन्द्र जैनाकाशमें ध्रुवताराकी तरह निरंतर प्रकाशमान होते रहेंगे। यों तो सर्वांग सूत्रको ग्रन्थारूढ़ करनेमें आ कुन्दकुन्द नाम गौतम गणधरके बाद लिया जाता है परन्तु उनके पूरे साहित्यका आलोडन कर उनपर भावपूर्ण सरस टीका लिखनेका पूरा श्रेय सर्वप्रथम आ० अमृतचन्द्रको ही प्राप्त है ।।
यद्यपि आ० गृद्धपिच्छने अपने तत्त्वार्थसूत्रमें द्रव्यके दोनों लक्षणोंका निर्देश करते हुए आ० कुन्दकुन्दके प्रवचनसार आदि ग्रन्थोंका ही अनुसरण किया है, इसी प्रकार आ० समन्तभद्रने 'धर्म-धर्म्यविनाभावः' इत्यादि कारिका लिखकर पूरे समयसारके भावको एक कारिकामें ही अभिव्यक्त कर दिया है। आ० पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि-टीका व समाधितंत्र आदि ग्रन्थोंपर दृष्टिपात करनेसे भी इसी तथ्यकी पुष्टि होती है । यही स्थिति आ० अकलंकदेव और विद्यानन्दकी भी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि समग्र जैन साहित्यपर आ० कुन्दकुन्दका ही पदानुसरण किया गया है । इसलिए यह लिखना तो उपयुक्त प्रतीत नहीं होता कि आ० कुंदकुंदके बाद एक हजार वर्ष तक किसीकी भी दृष्टि समयसार जैसे महानतम अध्यात्म ग्रंथपर नहीं गयी होगी । इन आचार्यों द्वारा जितने भी भावग्राही साहित्यकी रचना हुई है वह सब समयसारसे अनुप्राणित होकर ही हुई है। यह दूसरी बात है कि आ० अमृतचन्द्र देवने एक हजार वर्ष बाद इन ग्रन्थोंकी टीका की है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org