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४६० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थं
आगे श्लोक ४ में धर्मतीर्थकी प्रवृत्तिका निर्देश करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि व्यवहार और निश्चयके जानकार पुरुष (आचार्य) ही उसकी प्रवृत्ति करने में समर्थ होते हैं, क्योंकि आगममें निश्चयनयको भूतार्थ और व्यवहारनयको अभूतार्थ कहा गया है । परन्तु भूतार्थके ज्ञानसे विमुख प्रायः सभी संसारी जीव हैं । फिर भी अज्ञानीके अज्ञानको दूर करानेके अभिप्रायसे व्यवहार द्वारा परमार्थका ज्ञान कराया जाता है । किन्तु जो मात्र व्यवहारको ही मोक्षमार्ग मानते हैं उनके लिए जिनागमकी प्ररूपणा नहीं है। इसी तथ्यको दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करके आगे देशनाके फलको कौन प्राप्त होता है इसे समझाते हए इस ग्रन्थकी उत्पत्तिका ८ मंगलसूत्रों द्वारा समाप्त की गई है। सम्यक् पुरुषार्थ और उसका फल
ग्रन्थके नामके अनुसार ग्रन्थको प्रारम्भ करते हुए सर्वप्रथम पुरुष शब्दके अर्थको स्पष्ट किया गया है, क्योंकि जहाँ अध्यात्ममें निश्चयनयकी मुख्यतासे पुरुष (आत्मा) का अर्थ स्वतःसिद्ध है अतएव अनादि, अनन्त, विशद ज्योति और नित्य उद्योतरूप एक ज्ञायक आत्मा लिया गया है, वहाँ चरणानुयोगमें उभयनयसाध्य ऐसे आत्माको विवक्षित किया गया है, जो चेतन गुण-पर्यायवाला तथा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यस्वरूप होकर भी स्पर्शादि गुणवाले पुद्गल द्रव्य आदि समस्त परद्रव्योंसे अत्यन्त भिन्न है, क्योंकि जहाँ अध्यात्ममें ध्येय अर्थात् आलम्बनकी मुख्यतासे आत्माको लक्षित किया गया है वहाँ चरणानुयोगमें प्रवृत्ति-निवृत्तिकी मुख्यतासे कैसा आत्मा अपने इष्ट प्रयोजनकी सिद्धि करने में सफल होता है इस तथ्यकी मुख्यता है। यही कारण है कि इस शास्त्रमें उभय नयकी मुख्यतासे पुरुष शब्दका अर्थ करके तथा उसे (जीवको) परिणामस्वरूप सिद्ध करके भवका बीज क्या है, जिससे यह जीव चतुर्गतिरूप परिभ्रमणका पात्र बना हुआ है, यह स्पष्ट किया गया है ।
जैसा कि पूर्व में कह आये हैं कि जैसे जीव ध्रुवस्वभाव है वैसे ही वह स्वभावसे उत्पाद-व्ययरूप भी है । एक जीव ही क्या प्रत्येक द्रव्य अपने अन्वय स्वभावके कारण जहाँ नित्य है वहीं वह अपने व्यतिरेकस्वभावके कारण उत्पादव्ययरूपसे परिण मनशील भी है। नित्य होकर परिणमन करते रहना जड़ चेतन प्रत्येक द्रव्यका स्वभाव है । इसलिये जहाँ यह जीव व्याप्य-व्यापकभावसे प्रतिसमय अपने विवक्षित परिणामका कर्ता है वहीं वह भाव्य भावक भावसे स्वयं अपने परिणामका भोक्ता भी है। उसके रहते हुए भी जब यह आत्मा परलक्षी रागादि भावोंसे भिन्न अपने ज्ञान स्वरूप आत्माके अनुभवके द्वारा निश्चल अपने चैतन्य स्वरूपको प्राप्त कर लेता है, तब इसने अपना करणीय कार्य कर लिया यह निश्चित होता है। इसीका नाम सम्यक् पुरुषार्थकी सिद्धि है और इसीका नाम अपने अपराधके कारण प्राप्त हुए संयोगी जीवनसे मुक्ति है । स्वभावकी प्राप्ति इसीका दूसरा नाम है । संसार और उसका कारण - किन्तु इस जीवका और कर्मका अनादि सम्बन्ध होनेसे, संसार अवस्थामें यह जीव स्वयं अपने ज्ञान स्वभावको भूलकर अज्ञान और रागादिरूपसे परिणमन करता रहता है। अतः इन भावोंको निमित्तकर कार्मणवर्गणायें स्वयं ज्ञानावरणादि कर्मरूपसे परिणमन करती रहती हैं और उन ज्ञानावरणादि कर्मोको निमित्तकर जीवभी स्वयं अज्ञान रागादिरूपसे परिणमन करता रहता है । यह संसारकी अनादि परंपरा है । इसका मल कारण अपना अज्ञान है। उस कारण यह जीव अपने ज्ञानदर्शन स्वभावके कारण परसे भिन्न होनेपर भी उससे तन्मय जैसा अपनेको अनुभव करता रहता है । यही संसारका मूल कारण है ।
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