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४५८ : सिद्धान्ताचार्यं पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
( कलश २१४) एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको करता है यह झूठा व्यवहार है
'जीव ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मको करता है, भोगता है। उसका समाधान इस प्रकार है कि झूठे व्यवहारसे कहने को है । द्रव्यके इस रूपका विचार करनेपर परद्रव्यका कर्ता जीव नहीं है ।'
( कलश २२२) ज्ञेयको जानना विकारका कारण नहीं
'कोई मिथ्यादृष्टि जीव ऐसी आशंका करेगा कि जीव द्रव्य ज्ञायक है, समस्त ज्ञेयको जानता है, इसलिए परद्रव्यको जानते हुए कुछ थोड़ा बहुत रागादि अशुद्ध परिणतिका विकार होता होगा ? उत्तर इस प्रकार है कि परद्रव्यको जानते हुए तो एक निरंशभात्र भी नहीं है, अपनी विभाव परिणति करनेसे विकार है । अपनी शुद्ध परिणति होने पर निर्विकार है ।'
इत्यादि रूपसे अनेक तथ्योंका अनुभवपूर्ण वाणी द्वारा स्पष्टीकरण इस टीका में किया गया 1 टीकाका स्वाध्याय करनेसे ज्ञात होता है कि आत्मानुभूति पूर्वक निराकुलत्व लक्षण सुखका रसास्वादन करते हुए कविवर
यह टीका लिखी है । यह जितनी सुगम और सरल भाषामें लिखी गई है उतनी ही भव्य जनोंके चित्तको आह्लाद उत्पन्न करनेवाली है । कविवर बनारसीदास जी ने इसे बालबोध टीका इस नामसे सम्बोधित किया है । इसमें संदेह नहीं कि यह अज्ञानियों या अल्पज्ञोंको आत्मसाक्षात्कारके सम्मुख करने के अभिप्राय से ही लिखी गई है। इसलिए इसका बालबोध यह नाम सार्थक है । कविवर राजमल्लजी और इस टीकाके सम्बन्ध में कविवर बनारसीदासजी लिखते हैं
'पांडे राजमल्ल जिनधर्मी । समयसार नाटकके मर्मी । तिन्हें ग्रन्थकी टोका कोन्ही । बालबोध सुगम करि दीन्ही ॥ इस विधि बोध वचनिका फैली । समै पाइ अध्यातम सैली ॥ प्रगटी जगत मांही जिनवाणी, घर घर नाटक कथा बखानी ॥
कविवर बनारसीदास जीने कविवर राजमल्लजी और उनकी इस टीकाके सम्बन्धमें थोड़े शब्दों में जो कुछ कहना था, सब कुछ कह दिया है । कविवर बनारसीदासजीने छन्दोंमें नाटक समयसारकी रचना इसी टीका आधारसे की है । अपने इस भावको व्यक्त करते हुए कविवर स्वयं लिखते हैं
नाटक समैसार हितजीका, सुगमरूप राजमल टीका ॥ कवितबद्ध रचना जो होई, भाषा ग्रंथ पढ़े सब कोई || तब बनारसी मनमें आनी कीजे तो प्रगटे जिनवानी ॥ पंच पुरुसकी आज्ञा लीनी । कवितबन्धकी रचना कीनो || जिन पाँच पुरुषों को साक्षी करके कविवर बनारसीदासजीने छन्दोंमें नाटक समयसार की रचना की है । वे हैं - १. पं० रूपचंद जी, २ चतुर्भुजी जी, ३. कविवर भैया भगवतीदास जी, ४. कोरपालजी और ५. धर्मदास जी । इनमें पं० रूपचंद जी और भैया भगवतीदास जी का नाम विशेषरूप से उल्लेखनीय है । स्पष्ट है कि इन पांचों विद्वानोंने कविवर बनारसीदास जीके साथ मिलकर कविवर राजमल्ल जी की समयसार कलश बालबोध टीकाका अनेक बार स्वाध्याय किया होगा । यह टीका अध्यात्मके प्रचारमें काफी सहायक हुई यह इसीसे स्पष्ट है । पं० श्री रूपचन्द जी जैसे सिद्धान्ती विद्वान्को यह टीका अक्षरशः मान्य थी यह भी इससे सिद्ध होता है ।
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