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चतुर्थ खण्ड : ४५३
नय विकल्पके मिटनेके उपायका निर्देश करते हुए कलश ९२-९३ की टीकामें लिखा है
'शुद्ध स्वरूपका अनुभव होनेपर जिसप्रकार नयविकल्प मिटते हैं उसीप्रकार समस्त कर्मके उदयसे होनेवाले जितने भाव है वे भी अवश्य मिटते हैं ऐसा स्वभाव है।'
_ 'जितना नय है उतना श्रुतज्ञानरूप है, श्रुतज्ञान परोक्ष है, अनुभव प्रत्यक्ष है, इसलिये श्रुतज्ञान बिना जो ज्ञान है वह प्रत्यक्ष अनुभवता है।'
___जीव अज्ञान भावका कब कर्ता है और कब अकर्ता है इसका स्पष्टीकरण करते हुए कलश ९५ की टीकामें लिखा है
'कोई ऐसा मानेगा कि जीव द्रव्य सदा ही अकर्ता है उसके प्रति ऐसा समाधान कि जितने काल तक जीवका सम्यक्त्व गुण प्रगट नहीं होता उतने काल तक जीव मिथ्यादृष्टि है। मिथ्यादृष्टि हो तो अशुद्ध परिणामका कर्ता होता है । सो जब सम्यक्त्व गुण प्रगट होता है तब अशुद्ध परिणाम मिटता है, तब अशुद्ध परिणामका कर्ता नहीं होता।'
__ अशुभ कर्म बुरा और शुभ कर्म भला ऐसी मान्यता अज्ञानका फल है इसका स्पष्टीकरण करते हुए कलश १०० की टीकामें लिखा है
'जैसे अशुभकर्म जीवको दुःख करता है उसी प्रकार शभकर्म भी जीवको दुःख करता है। कर्ममें तो भला कोई नहीं है । अपने मोहको लिये हुए मिथ्यादृष्टि जीव कर्मको भला करके मानता है । ऐसी भेद प्रतीति शुद्ध स्वरूपका अनुभव हुआ तबसे पाई जाती है।'
शुभोपयोग भला, उससे क्रमसे कर्मनिर्जरा होकर मोक्ष प्राप्ति होती है यह मान्यता कैसे झूठी है इसका स्पष्टीकरण करते हए कलश १०१ की टीकामें लिखा है
___'कोई जीव शुभोपयोगी होता हुआ यतिक्रियामें मग्न होता हुआ शुद्धोपयोगको नहीं जानता, केवल यतिक्रियामात्र मग्न है । वह जीव ऐसा मानता है कि मैं तो मुनीश्वर, हमको विषय-कषाय सामग्री निसिद्ध है । ऐसा जानकर विषय कषाय सामग्रीको छोड़ता है, आपको धन्यपना मानता है, मोक्षमार्ग मानता है । सो विचार करनेपर ऐसा जीव मिथ्यादृष्टि है । कर्मबन्धको करता है, काँई भलापन तो नहीं है।'
क्रिया संस्कार छटनेपर ही शुद्धस्वरूपका अनुभव संभव है इसका स्पष्टीकरण कलश १०४ की टीकामें इसप्रकार किया है
'शुभ-अशुभ क्रियामें मग्न होता हुआ जीव विकल्पी है, इससे दुःखी है। क्रिया संस्कार छूटकर शुद्धस्वरूपका अनुभव होते हो जीव निर्विकल्प है, इससे सुखी है।'
कैसा अनुभव होनेपर मोक्ष होता है इसका स्पष्टीकरण कलश १०५ की टीकामें इस प्रकार किया है
‘जीवका स्वरूप सदा कर्मसे मुक्त है । उसको अनुभवने पर मोक्ष होता है ऐसा घटता है, विरुद्ध तो नहीं ।'
स्वरूपाचरण चारित्र क्या है इसका स्पष्टीकरण कलश १०६ की टीकामें इस प्रकार किया है
'कोई जानेगा कि स्वरूपाचरण चारित्र ऐसा कहा जाता है जो आत्माके शुद्ध स्वरूपको विचारे अथवा चिन्तवे अथवा एकाग्ररूपसे मग्न होकर अनुभवे । सो ऐसा तो नहीं, उसके करने पर बन्ध होता है, क्योंकि ऐसा तो स्वरूपाचरण चारित्र नहीं है। तो स्वरूपाचरण चारित्र कैसा है ? जिस प्रकार पन्ना (सुवर्ण पत्र) पकानेसे सुवर्णमें की कालिमा जाती है, सुवर्ण शुद्ध होता है उसी प्रकार जीव द्रव्यके अनादिसे अशुद्ध चेतनारूप
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