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चतुर्थ खण्ड : ४५१ 'कोई जानेगा कि जैनसिद्धान्तका बारबार अभ्यास करनेसे दृढ़ प्रतीति होती है उसका नाम अनुभव है सो ऐसा नहीं है । मिथ्यात्वकर्मका रसपाक मिटनेपर मिथ्यात्व भावरूप परिणमन मिटता है तो वस्तुस्वरूपका प्रत्यक्षरूपसे आस्वाद आता है, उसका नाम अनुभव है।'
विधि प्रतिषेधरूपसे जीवका स्वरूप क्या है इसे स्पष्ट करते हुए कलश ३३ की टीकामें बतलाया है__'शुद्ध जीव है, टंकोत्कीर्ण है, चिद्रूप है ऐसा कहना विधि कही जाती है । जीवका स्वरूप गुणस्थान नहीं, कर्म-नोकर्म जीवके नहीं, भावकर्म जीवका नहीं ऐसा कहना प्रतिषेध कहलाता है।'
हेय-उपादेयका ज्ञान कराते हए कलश ३६ की टीकामें कहा है'जितनी कुछ कर्मजाति है वह समस्त हेय है । उसमें कोई कर्म उपादेय नहीं है । इसलिए क्या कर्तव्य है इस बातको स्पष्ट करते हुए उसीमें बतलाया है
'जितने भी विभाव परिणाम हैं वे सब जीवके नहीं हैं। शुद्ध चैतन्यमात्र जीव है ऐसा अनुभव कर्तव्य है।'
कलश ३७ की टीकामें इसी तथ्यको पुनः स्पष्ट करते हुए लिखा है
'वर्णादिक और रागादि विद्यमान दिखलाई पड़ते हैं। तथापि स्वरूप अनुभवने पर स्वरूपमात्र है, विभाव-परिणतिरूप वस्तु तो कुछ नहीं।'
कर्मबन्ध पर्यायसे जीव कैसे भिन्न है इसे दृष्टान्त द्वारा समझाते हुए कलश ४४ की टीकामें कहा है
'जिस प्रकार पानी कीचड़के मिलनेपर मैला है । सो वह मैलापन रंग है, सो रंगको अंगीकार न कर बाकी जो कुछ है सो पानी है। उसी प्रकार जीवकी कर्मबन्ध पर्यायरूप अवस्था में रागादिभाव रंग है, सो रंगको अंगीकार न कर बाकी जो कुछ है सो चेतन धातुमात्र वस्तु है। इसी का नाम शुद्धस्वरूप अनुभव जानना जो सम्यग्दृष्टिके होता है ।'
इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए कलश ४५ की टीकामें लिखा है
"जिस प्रकार स्वर्ण और पाषाण मिले हए चले आ रहे हैं और भिन्न-भिन्नरूप हैं। तथापि अग्निका संयोग जब ही पाते हैं तभी तत्काल भिन्न-भिन्न होते हैं। उसी प्रकार जीव और कर्मका संयोग अनादिसे चला आ रहा है और जीव कर्म भिन्न-भिन्न हैं । तथापि शुद्धस्वरूप अनुभव बिना प्रगटरूपसे भिन्न-भिन्न होते नहीं, जिस काल शुद्धस्वरूप अनुभव होता है उस काल भिन्न-भिन्न होते हैं।'
विपरीत बुद्धि और कर्मबन्ध मिटनेके उपायका निर्देश करते हुए कलश ४७ की टीकामें लिखा है
'जैसे सूर्यका प्रकाश होनेपर अंधकारको अवसर नहीं, वैसे शुद्धस्वरूप अनुभव होनेपर विपरीतरूप मिथ्यात्व बद्धिका प्रवेश नहीं । यहाँपर कोई प्रश्न करता है कि शुद्ध ज्ञानका अनुभव होनेपर विपरीत बुद्धिमात्र मिटती है कि कर्मबन्ध मिटता है ? उत्तर इस प्रकार है कि विपरीत बुद्धि मिटती है, कर्मबन्ध भी मिटता है।'
कर्ता-कर्मका विचार करते हुए कलश ४९ की टीकामें लिखा है
'जैसे उपचारमात्रसे द्रव्य अपने परिणाममात्रका कर्ता है, वही परिणाम द्रव्यका किया हुआ है वैसे अन्य द्रव्यका कर्ता अन्य द्रव्य उपचारमात्रसे भी नहीं है क्योंकि एकसत्त्व नहीं, भिन्न सत्त्व हैं।'
जीव और कर्मका परस्पर क्या सम्बन्ध है इस तथ्यको स्पष्ट करते हुए कलश ५० की टीकामें लिखा है
‘जीव द्रव्य ज्ञाता है, पुद्गल कर्म ज्ञेय है ऐसा जीवको कर्मको ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है, तथापि व्याप्यव्यापक सम्बन्ध नहीं है, द्रव्योंका अत्यन्त भिन्नपना है, एकपना नहीं है।'
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