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४५० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
इसी तथ्यको कलश १० की टीकामें इन शब्दोंमें व्यक्त किया है'समस्त संकल्प-विकल्पसे रहित वस्तुस्वरूपका अनुभव सम्यक्त्व है ।'
रागादि परिणाम अथवा सुख-दुःख परिणाम स्वभाव परिणतिसे बाह्य कैसे है इसका ज्ञान कराते हुए कलश ११ की टीकामें कविवर कहते हैं
'यहाँ पर कोई प्रश्न करता है कि जीवको तो शुद्धस्वरूप कहा और वह ऐसा ही है, परन्तु राग-द्वेषमोहरूप परिणामोंको अथवा सुख-दुःख आदि रूप परिमाणोंको कौन करता है, कौन भोगता है ? उत्तर इस प्रकार है कि इन परिणामोंको करे तो जीव करता है और जीव भोगता है। परन्तु यह परिणति विभावरूप है, उपाधिरूप है। इस कारण निजस्वरूप विचारने पर यह जीवका स्वरूप नहीं है ऐसा कहा जाता है।'
शुद्धात्मानुभव किसे कहते हैं इसका स्पष्टीकरण कलश १३ की टीका पढ़िये'निरूपाधिरूपसे जीव द्रव्य जैसा है वैसा ही प्रत्यक्षरूपसे आस्वाद आवे इसका नाम शुद्धात्मानुभव है।'
द्वादशाङ्गज्ञान और शुद्धात्मानुभवमें क्या अन्तर है इसका जिन सुन्दर शब्दोंमें कविवरने कलश १४ की टीकामें स्पष्टीकरण किया है वह ज्ञातव्य है
_ 'इस प्रसङ्गमें और भी संशय होता है कि द्वादशाङ्गज्ञान कुछ अपूर्व लब्धि है। उसके प्रति समाधान इस प्रकार है कि द्वादशाङ्गज्ञान भी विकल्प है। उसमें भी ऐसा कहा है कि शुद्धात्मानुभूति मोक्षमार्ग है, इसलिए शुद्धात्मानुभूतिके होनेपर शास्त्र पढ़नेकी कुछ अटक नहीं है।'
मोक्ष जानेमें द्रव्यान्तरका सहारा क्यों नहीं है इसका स्पष्टीकरण कविवरने कलश १५ की टीकामें इन शब्दोंमें किया है
'एक ही जीव द्रव्य कारणरूप भी अपने में ही परिणमता है और कार्यरूप भी अपने में परिणमता है । इस कारण मोक्ष जानेमें किसी द्रव्यान्तरका सहारा नहीं है, इसलिए शुद्ध आत्माका अनुभव करना चाहिए।'
शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है मात्र ऐसा जानना कार्यकारी नहीं। तो क्या है इसका स्पष्टीकरण कलश २३ की टोकामें पढ़िये
'शरीर तो अचेतन है, विनश्वर है। शरीरसे भिन्न कोई तो पुरुष है ऐसा जानपना ऐसी प्रतीति मिथ्यादृष्टि जीवके भी होती है पर साध्यसिद्धि तो कुछ नहीं। जब जीव द्रव्यका द्रव्य-गुण-पर्यायस्वरूप प्रत्यक्ष आस्वाद आता है तब सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है, सकल कर्मक्षय मोक्ष लक्षण भी है।'
जो शरीर सुख-दुःख राग-द्वेष-मोहकी त्यागबुद्धिको कारण और चिद्रप आत्मानुभवको कार्य मानते है उनको समझाते हुए कविवर क० २९ में क्या कहते हैं यह उन्हीके समर्पक शब्दोंगे पढ़िये
'कोई जानेगा कि जितना भी शरीर, सुख, दुख, राग, द्वेष, मोह है उसकी त्यागबुद्धि कुछ अन्य हैकारणरूप है । तथा शुद्ध चिद्रूपमात्रका अनुभव कुछ अन्य है-कार्यरूप है। उसके प्रति उत्तर इस प्रकार है कि राग, द्वेष, मोह, शरीर, सुख, दुःख आदि विभाव पर्यायरूप परिणति हुए जीवका जिस कालमें ऐसा अशुद्ध परिणामरूप संस्कार छूट जाता है उसी कालमें इसके अनुभव है। उसका विवरण-जो शुद्धचेतनामात्रका आस्वाद आये बिना अशुद्ध भावरूप परिणाम छूटता नहीं और अशुद्ध संस्कार छूटे बिना शुद्ध स्वरूपका अनुभव होता नहीं । इसलिए जो कुछ है सो एक ही काल, एक ही वस्तु, एक ही ज्ञान, एक ही स्वाद है।'
जो समझते हैं कि जैनसिद्धान्तका बारबार अभ्यास करनेसे जो दृढ़ प्रतीति होती है उसका नाम अनुभव है । कविवर उनकी इस धारणाको कलश ३० में ठीक न बतलाते हुए लिखते हैं
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