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४४८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
ज्ञान भी नहीं, इसलिए इनके सारपना घटता नहीं । शुद्ध जीवके सुख है, ज्ञान भी है, उनको जानने परअनुभवने पर जाननहारेको सुख है, ज्ञान भी है, इसलिए शुद्ध जीवके सारपना घटता है ।'
ये कविवर सप्रयोजन भावभरे शब्द हैं । इन्हें पढ़ते ही कविवर दौलतरामजी के छहढालाके ये वचन चित्तको आकर्षित कर लेते हैं
तीन भुवनसे सार वीतराग विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार नमहुँ त्रियोग सम्हारके ||१|| आतमको हित है सुख, सो सुख आकुलता बिन कहिये । आकुलता शिवमांहि न, तातें: शिवमग लाग्यो चहिये ||
मालूम पड़ता है कि कविवर दौलतरामजीके समक्ष यह टीका वचन था । उसे लक्ष्यमें रखकर ही उन्होंने इन साररूप छन्दोंकी रचनाकी है ।
प्रत्यगात्मनः (क० २ ) – दूसरे कलश द्वारा अनेकान्त स्वरूप भाववचनके साथ स्याद्वादमयी दिव्यsafai स्तुति की गई है । अतएव प्रश्न हुआ कि वाणी तो पुद्गलरूप अचेतन है, उसे नमस्कार कैसा ? इस समस्त प्रसंगको ध्यान में रखकर कविवर कहते हैं
'कोई वितर्क करेगा कि दिव्यध्वनि तो पुद्गलात्मक है, अचेतन है, अचेतनको नमस्कार निषिद्ध है । उसके प्रति समाधान करनेके निमित्त यह अर्थ कहा कि वाणी सर्वज्ञस्वरूप अनुसारिणी है । ऐसा माने बिना भी बने नहीं । उसका विवरण - वाणी तो अचेतन है । उसको सुनने पर जीवादि पदार्थका स्वरूप ज्ञान जिस प्रकार उपजता है उसी प्रकार जानना - वाणीका पूज्यपना भी है ।'
कविवरके इस वचनसे दो बातें ज्ञात होती हैं - प्रथम तो यह कि दिव्यध्वनि उसीका नाम है जो सर्वज्ञके स्वरूपके अनुरूप वस्तुस्वरूपका प्रतिपादन करती है । इसी तथ्यको स्पष्ट करनेके अभिप्राय से कविवर 'प्रत्यगात्मन् ' शब्द का अर्थ सर्वज्ञ वीतराग किया है जो युक्त है । दूसरी बात यह ज्ञात होती है कि सर्वज्ञ वीतराग और दिव्यध्वनि इन दोनोंके मध्य निमित नैमित्तिक सम्बन्ध है । दिव्यध्वनिकी प्रामाणिकता भी इसी कारण व्यवहार पदवीको प्राप्त होती है । स्वतः सिद्ध इसी भावको व्यक्त करनेवाला कविवर दौलतरामजीका यह वचन ज्ञातव्य है
वसाय |
भविभागनि तुम धुनि
वचिजोगे सुनि विभ्रम नसाय ||
जिनवचसि रमन्ते (क० ४ ) -- इस पदका भाव स्पष्ट करते हुए कविवरने जो कुछ अपूर्व अर्थका उद्घाटन किया है वह हृदयंगम करने योग्य है । वे लिखते हैं
'वचन पुद्गल है उसकी रुचि करने पर स्वरूपकी प्राप्ति नहीं । इसलिये वचनके द्वारा कही जाती है। जो कोई उपादेय वस्तु उसका अनुभव करने पर फल प्राप्ति है ।'
कविवरने 'जिनवचसि रमन्ते' पदका यह अर्थ उसी कलशके उत्तरार्द्धको दृष्टिमें रखकर किया है । इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि दोनों नयोंके विषयको जानना एक बात है और जानकर निश्चयनयके विषयभूत शुद्ध वस्तुका आश्रय लेकर उसमें रममाण होना दूसरी बात है । कविवर ने उक्त शब्दों द्वारा इसी आशयको अभिव्यक्त किया है ।
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