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चतुर्थ खण्ड ४३१
एक-एक शब्दमें अनेक अर्थोंको द्योतित करनेकी शक्ति होती है । उसमें विशेषणकी सामर्थ्य से प्रतिनियत अर्थके प्रतिपादनकी शक्तिको व्यस्त करना प्रयोजन है। पहले सम्यग्दर्शनादि और जीवादि पदार्थोंका उल्लेख कर आये हैं। उनमेंसे प्रकृतमें किस पदका कोन अर्थ इष्ट है इस तथ्यका विवेक करनेके लिये 'नामस्थापना' इत्यादि पाँचवें सूत्रकी रचना हुई है। किन्तु इस निर्णय में सम्यग्ज्ञानका स्थान सर्वोपरि है। इस तथ्यको ध्यान में रख कर निक्षेप योजनाके प्ररूपक सूत्र के बाद 'प्रमाण- नयैरधिगमः ' रचा गया है।
प्रमाण -- नवस्वरूप सम्यग्ज्ञान द्वारा सुनिर्णीत निक्षिप्त किस पदार्थकी व्याख्या कितने अधिकारोंमें करनेसे वह सर्वांगपूर्ण कही जायगी इस तथ्य को स्पष्ट करनेके लिये 'निर्देश- स्वामित्व' इत्यादि और 'सत्संख्या ' इत्यादि दो सूत्रोंकी रचना हुई है। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्रमें ये आठ सूत्र मुख्य हैं। अन्य सब सूत्रों द्वारा पोष सब कथन इन सूत्रोंमें प्रतिपादित अर्थ का विस्तार मात्र है । उसमें प्रथम अध्यायमें अन्य जितने सूत्र हैं उन द्वारा सम्यग्ज्ञान तत्त्व की विस्तारसे मीमांसाकी गई है । उसमें जो ज्ञान विधि निषध उभयस्वरूप वस्तुको युगवत् विषय करता है उसे प्रमाण कहते हैं और जो ज्ञान गौण मनुष्यस्वभावसे अवयवको विषय करता है। उसे नय कहते हैं । नयज्ञानमें इतनी विशेषता है कि वह एक अंश द्वारा वस्तुको विषय करता है, अन्यका निषेध नहीं करता । इसीलिये उसे सम्यग्ज्ञानकी कोटिमें परिगृहीत किया गया है।
दूसरे, तीसरे और चौथे अध्यायमें प्रमुखताने जीवपदार्थका विवेचन किया गया है। प्रसंगसे इन तीनों अध्यायोंमें पांच भाव, जीवका लक्षण, मनका विषय पाँच इन्द्रियां, उनके उत्तरभेद और विषय पाँच शरीर, तीन वेद, नौयोनि, नरकलोक, मध्यलोक और उर्ध्वलोक, चारों गतियोंके जीवोंकी आयु आदिका विस्तारसे विवेचन किया गया है। दूसरे अध्यायके अन्तमें एक सूत्र है जिसमें जिन जीवोंकी अनपवर्त्य आयु होती है। उनका निर्देश किया गया है ।
विषमक्षण, शस्त्रप्रहार, श्वासोच्छ्वास निरोध आदि बाह्य निमित्तोंके सन्निधान में भुज्यमान आयुमें ह्रास होनेको अपवर्त कहते हैं। किन्तु इस प्रकार जिनकी आयुका ह्रास नहीं होता उन्हें अनपवर्त्य आयुवाला कहा गया है। प्रत्येक तीर्थकरके कालमें ऐसे दस उपसर्ग केवली और दस अन्यः कृत केवली होते हैं जिन्हें बाह्य में भयंकर उपसर्गादिके संयोग बनते हैं, परन्तु उनके आयुका ह्रास नहीं होता । इससे यह सिद्धान्त निश्चित होता है कि अन्तरंग जिस आयुमें अपने कालमें ह्रास होनेकी पात्रता होती है, बाह्यमें उस काल में काल प्रत्यासत्तिवश व्यवहारसे ह्रासके अनुकूल अन्य विषभक्षण आदि बाह्य सामग्रीका सन्निधान होनेपर उस आयुका ह्रास होता है । अन्तरंग में आयु में ह्रास होनेकी पात्रता न हो और उसके ह्रासके अनुकूल बाह्य सामग्री मिलने पर उसका ह्रास हो जाय ऐसा नहीं है ।
चौथे अध्यायमें देवोंके अवान्तर भेदोंके निरूपणके साथ उनके निर्देश किया गया है। उससे यह सिद्धान्त फलित होता है कि भोगोपभोगकी बहुलता और परिग्रहको बहुलता साता आदि पुण्यातिशयका फल न होकर सात परिणामकी बहुलता उसका फल है, इसलिये कर्मशास्त्रमें बाह्य सामग्रीको सुख-दुःख आदि परिणामोंके निमित्तरूपमें स्वीकार किया गया है। देवोंकी लेश्या और आयु आदिका विवेचन भी इसी अध्यायमें किया गया है ।
पांचवें अध्यायमें छह द्रव्यों और उनके गुण-पर्यायोंका सांगोपांग विवेचन करते हुए उनके परस्पर उपकारका और गुणपर्यायके साथ द्रव्यके सामान्य लक्षणका भी निर्देश किया गया है । यहाँ उपकार शब्दका अर्थ बाह्य साधनसे है । प्रत्येक द्रव्य जब अपने परिणाम स्वभावके कारण विवक्षित एक पर्यायसे अपने तत्कालीन उनके अनुसार अन्य पर्याय रूपसे परिणमता है तब उसमें अन्य द्रव्यकी निमित्तता कहाँ किस रूपमें स्वी
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