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चतुर्थ खण्ड : ४३७
तथ्य उद्घाटित किया है कि 'संवर' को ही यहाँपर व्यतिरेक मुखसे 'बन्धहेत्वभाव' कहा गया है, क्योंकि जितने अंशमें बन्धके हेतुओंका अभाव होता है उतने ही अंशमें संवरकी प्राप्ति होती है। उसे ही दूसरे शब्दोंमें हम यों भी कह सकते हैं कि जितने अंशमें संवर अर्थात् स्वरूपस्थिति होती है उतने ही अंशमें बन्धके हेतुओंका अभाव होता है।
पहले दूसरे अध्यायमें जीवके पाँच भावोंका निर्देश कर आये हैं। क्या वे पाँचों प्रकारके भाव मुक्त जीवोंके भी पाये जाते हैं या उनमें कुछ विशेषता है ऐसी आशंकाको ध्यानमें रखकर सूत्रकारने उसका निरसन करनेके अभिप्रायसे ३ रे और ४ थे सूत्रों की रचना की है। तीसरे सूत्र में तो यह बतलाया गया है कि मक्त जीवोंके कर्मोके उपशम, क्षयोपशम और उदयके निमित्तसे जितने भाव होते हैं उनका अभाव तो हो ही जाता है। साथ ही भव्यत्व भावका भी अभाव हो जाता है। जैसे किसी उड़दमें कारणरूपसे पाकशक्ति होती है और किसी विशेष उड़दमें ऐसी पाक शक्ति नहीं होती उसी प्रकार अधिकतर जीवोंमें रत्नत्रयको प्रकट करनेकी सहज योग्यता होती है और कुछ जीवोंमें ऐसी योग्यता नहीं होती। जिनमें रत्नत्रयको प्रकट करनेकी सहज कारण योग्यता होती है उन्हें भव्य कहते हैं और जिनमें ऐसी कारण योग्यता नहीं होती उन्हें अभव्य कहते हैं। स्पष्ट है कि जिन जीवोंने मुक्ति लाभ कर लिया है उनके रत्नत्रयरूप कार्य परिणामके प्रकट हो जानेसे भव्यत्व भावरूप सहज कारण योग्यताके कार्यरूप परिणम जानेसे वहाँ इसका अभाव स्वीकार किया गया है। उदाहरणार्थ जो मिट्टी घट परिणामका कारण है उसका घट परिणामस्वरूप कार्य हो जानेपर उसमें जैसे वर्तमानमें वह कारणता नहीं रहती उसी प्रकार प्रकृतमें समझना चाहिये।
चौथे सूत्रमें मुक्त जीवके जो भाव शेष रहते हैं उन्हें स्वीकार किया है यद्यपि उक्त सूत्रमें ऐसे कुछ ही भावों का नामनिर्देश किया गया है जो मुक्त जीवोंमें पाये जाते हैं। पर वहाँ उनका उपलक्षण रूपसे ही नामनिर्देश किया गया जानना चाहिए। अतः इससे उन भावोंका भी ग्रहण हो जाता है जिनका उल्लेख उक्त सूत्रमें नहीं किया गया है, पर मुक्त जीवोंमें पाये अवश्य जाते हैं। यहाँ यह बात विशेषरूपसे ध्यान देने योग्य है कि यद्यपि ये भाव कर्मक्षयको निमित्तकर होते हैं, इसलिए इन्हें क्षायिक भाव भी कहते हैं । उनमें क्षायिक चारित्र भी गर्भित है। परन्तु सूत्रमें इनका क्षायिक भावरूपसे उल्लेख नहीं किया गया है । इसका कारण यह है कि ये सब भाव स्वभावके आश्रयसे उ-पन्न होते हैं, इसलिए इस अपेक्षासे ये वास्तवमें स्वभाव भाव ही हैं। उन्हें क्षायिक भाव कहना यह उपचार है। सूत्रकारने अपने इस निर्देश द्वारा यह स्पष्ट कर दिया है कि मुमुक्षु जीवको मोक्ष प्राप्तिके लिये बाह्य सामग्रीका विकल्प छोड़कर अपने उपयोग द्वारा स्वभाव सन्मुख होना ही कार्यकारी है।
मक्तिलाभ होनेपर यह जीव जिस क्षेत्र में मुक्तिलाभ करता है वहीं अवस्थित रहता है या क्षेत्रान्तरमें गमन कर जाता है ? यदि क्षेत्रान्तरमें गमन करके जाता है तो वह क्षेत्र कौनसा है जहाँ जाकर यह अवस्थित रहता है ? साथ ही वहीं इसका गमन क्यों होता है ? 'मुक्त होनेके बाद भी यदि गमन होता है तो नियत क्षेत्र तक ही गमन होनेका कारण क्या है ? इत्यादि अनेक प्रश्न हैं जिनका समाधान ५ से लेकर ८वें तकके सूत्रोंमें किया गया है।
प्रयोजनीय बात यहाँ यह कहनी है कि सातवें सूत्रमें 'तथागतिपरिणामात्' पद द्वारा तो मुक्त जीवकी स्वभाव ऊर्ध्व गतिका निर्देश किया गया है और ८वें सूत्र द्वारा उसके बाह्य साधनका उल्लेख किया गया है।
यहाँ पर कुछ विद्वान यह शंका किया करते हैं कि मुक्त जीवका उपादान तो लोकान्तरके ऊपर जानेका भी है, पर आगे धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे लोकान्तसे ऊपर उसका गमन नहीं होता : किन्तु
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