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चतुर्थ खण्ड : ४३५
अर्थ ही आत्माका अकेला होना है, अतः मोक्षमार्ग वह कहलाया जिस मार्गसे आत्मा अकेला बनता है । देवशास्त्र-गुरुकी भक्ति या व्रतादिरूप परिणामको आगममें व्यवहार धर्मरूपसे इसीलिए स्वीकार किया गया है कि वह जीवका परलक्षी संयोगी परिणाम है, स्वरूपानुभूतिरूप आत्माश्रयी अकेला परिणाम नहीं।
शका-स्व-परका प्रकाशन करना यह ज्ञानका स्वरूप है। ऐसी अवस्थामें प्रत्येक उपयोग परिणाममें परलक्षीपना बना रहेगा, उसका वारण कैसे किया जा सकता है ?
समाधान-ज्ञानके स्व-पर प्रकाशक होनेसे प्रत्येक निश्चय नयात्मक उपयोग परलक्षी या पराश्रित ही होता है ऐसी बात नहीं है।
एकत्वपनसे या इष्टानिष्टपनसे बद्धिपूर्वक परलक्षी या पराश्रित ज्ञान परिणाम है और स्वरूपके वंदन कालमें अपने उपयोग परिणामरूपसे पर भी जानने में आना ज्ञानका स्व-पर प्रकाशकपना है ।
शंका-ज्ञानके उपयोग परिणामकी ऐसी स्थिति कहाँ बनती है ? समाधान-केवल ज्ञानमें ।
शंका-छद्मस्थके स्वरूपका वेदन करते समय जो परिणाम होता है उसमें ऐसी स्थिति बनती है कि नहीं?
समाधान--छद्मस्थके स्वसन्मुख होकर स्वरूपका वेदन करते समय प्रमाण ज्ञानकी प्रवृत्ति न होकर नयज्ञानकी प्रवृत्ति होती है, इसलिये उस कालम उपयोगमें पर गौण होनेसे लक्षित नहीं होता। पण्डितप्रवर आशाधरजी (अनगारधर्मामृत, अध्याय, श्लोक १०८-१०९ की स्वोपज्ञ टीकामें) लिखते है
तदतन्तरमप्रमत्तादिक्षीणकषायपर्यन्तं जघन्य-मध्यमोत्कृष्टभेदेन विवक्षितैकदेशेन शुद्धनयरूपः शुद्धोपयोगो वर्तते ।
अर्थ-तदनन्तर अप्रमत्त गुणस्थानसे लेकर क्षीण कषाय गुणस्थान पर्यन्त जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेदरूप विवक्षित एक देशरूपसे शुद्धनयरूप शुद्धोपयोग प्रवर्तता है ।
इसी तथ्यको सुस्पष्ट करते हुए वे इसी स्थल पर आगे लिखते हैं
अत्र च शुद्धनये शुद्धबुद्धकस्वभावो निजात्मा ध्येयत्तिष्ठतीति । शुद्धध्येयत्वाच्छद्भावलम्बनत्वाच्छुद्धात्मस्वरूपसाधकत्वाच्च शुद्धोपयोगो घटते । स च भाव संवर इत्युच्यते । एष च संसारकारणभूतमिथ्यात्वरागाद्यशुद्धपर्यावदशुद्धो न स्यात्, नापि फलभूतकेवलज्ञानलक्षणशुद्धपर्यायवच्छुद्धः स्यात् । किन्तु ताभ्यामशुद्ध-शुद्धपर्यायाभ्यां विलक्षणं शुद्धात्मानुभूतिरूपनिश्चयरत्नन्नयात्मकं मोक्षकारणमेकदेशव्यक्तिरूपमेकदेशनिवारणं च तृतीयमवस्थान्तरं भण्यते ।
__ और यहाँ पर शुद्धनयमें शुद्ध , बुद्ध , एकस्वभाव निज आत्मा ध्येय है इसलिए शुद्ध ध्येय होनेसे, शुद्धका अवलम्बन होनेसे तथा शुद्ध आ-मस्वरूपका साधक होनेसे शुद्धोपयोग बन जाता है। इसीका नाम भाव-संवर है । यह संसारके कारणभूत मिथ्यात्व और रागादि अशुद्ध पर्यायोंके समान अशुद्ध नहीं है और फलभूत केवलज्ञान लक्षण शुद्ध पर्यायके समान शुद्ध भी नहीं है। किन्तु उन दोनों अशुद्ध और शुद्ध पर्यायोंसे विलक्षण शुद्ध आत्मानुभुतिरूप निश्चय रत्नत्रयात्मक मोक्षकारण एक देश व्यक्तिरूप और एकदेश निवारण तीसरी अवस्थारूप कहा जाता है।
यहाँ अप्रमत्त संयम नामक सातवें गुणस्थानसे शुद्धोपयोगकी प्रवृत्तिका ज्ञापन किया गया है और सातवें गुणस्थानमें धर्म ध्यान होता है, क्योंकि आरोहणके पूर्व धर्मध्यान होता है और दोनों श्रेणियों में
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