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चतुर्थ खण्ड : ४४५
किया है । विषय प्रतिपादनकी दृष्टिसे जो प्रौढ़ता पंचाध्यायीमें दृष्टिगोचर होती है उसकी इसमें एक प्रकारसे न्यूनता ही कही जायेगी । आश्चर्य नहीं कि यह ग्रन्थ अध्यात्मप्रवेशकी पूर्वपीठिकाके रूपमें लिखा गया हो । अस्तु,
५ से ७ जान पड़ता है कि कविवरने पूर्वोक्त चार ग्रन्थोंके सिवाय तत्त्वार्थसूत्र और समयसारकलशकी टीकाएँ लिखने के बाद पंचाध्यायीकी रचनाकी होगी। समयसार-कलशकी टीकाका परिचय तो हम आगे कराने वाले हैं, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र टीका हमारे देखनेमें नहीं आई, इसलिये वह कितनी अर्थगर्भ है यह लिखना कठिन है। रहा पंचाध्यायी ग्रन्थराज सो इसमें संदेह नहीं कि अपने कालकी संस्कृत रचनाओंमें विषय प्रतिपादन और शैली इन दोनों दृष्टियोंसे यह ग्रन्थ सर्वोत्कृष्ट रचना है । इसे तो समाजका दुर्भाग्य ही कहना चाहिये कि कविवरके द्वारा ग्रन्थके प्रारम्भमेंकी गई प्रतिज्ञाके अनुसार पाँच अध्यायोंमें पूरा किया जानेवाला यह ग्रन्थराज केवल डेढ़ अध्याय मात्र लिखा जा सका। इसे भगवान कुन्दकुन्द और आचार्य अमृतचन्द्रकी रचनाओंका अविकल दोहन कहना अधिक उपयुक्त है। कविवरने इसमें जिस विषयको स्पर्श किया है उसकी आत्माको स्वच्छ दर्पणके समान खोलकर रख दिया है। इसमें प्रतिपादित अध्यात्मनयों और सम्यत्वकी प्ररूपणामें जो अद्भुत विशेषता दृष्टिगोचर होती है उसने ग्रन्थराजकी महिमाको अत्यधिक बढ़ा दिया है इसमें संदेह नहीं ।
श्री समयसार परमागम
कविवर और उनकी रचनाओंके सम्बन्धमें इतना लिखनेके बाद समयसारकलश बालबोध टीकाका प्रकृतमें विशेष विचार करना है । यह कविवरकी अध्यात्मरससे ओतप्रोत तत्सम्बन्धी समस्त विषयोंपर सांगोपांग तथा विशद प्रकाश डालनेवाली अपने कालकी कितनी सरल, सरस और अनुपम रचना है यह आगे दिये जानेवाले उसके परिचयसे भलीभाँति सुस्पष्ट हो जायगा।
इसमें अणुमात्र भी संदेह नहीं कि श्रीसमयसार परमागम एक ऐसे आत्मज्ञानी महात्माकी वाणीका सुखद प्रसाद है जिनका आत्मा आत्मानुभूति स्वरूप निश्चय सम्यग्दर्शनसे सुवासित था, जो अपने जीवनकालमें ही निरन्तर पुनः पुनः अप्रमत्त भावको प्राप्त कर ध्यान ध्याता और ध्येयके विकल्पसे रहित परम समाधिरूप आत्मीक सुखका रसास्वादन करते रहते थे. जिन्हें अरिहन्त भट्टारक भगवान् महावीरकी वाणीका सारभूत रहस्य गुरु परम्परासे भले प्रकार अवगत था, जिन्होंने अपने वर्तमान जीवनकालमें ही पूर्वमहाविदेहस्थित भगवान सीमंधर स्वामीके साक्षात् दर्शनके साथ उनकी दिव्यध्वनिको आत्मसात् किया था तथा अप्रमत्त भावसे प्रमत्तभावमें आनेपर जिनका शीतल और विवेकी चित्त करुणाभावसे ओतप्रोत होनेके कारण संसारी प्राणियोंके परमार्थ स्वरूप हितसाधनमें निरन्तर सन्नद्ध रहता था। आचार्यवर्टाने श्रीसमयसार परमागममें अनादि मिथ्यात्वसे प्लावित चित्तवाले मिथ्यादृष्टियोंके गृहीत और अगृहीत मिथ्यात्वको छुड़ानेके सदभिप्रायवश द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोककर्मसे भिन्न एकत्वस्वरूप जिस आत्माके दर्शन कराये हैं और उसकी प्राप्तिका मार्ग सुस्पष्ट किया है वह पूरे जैनशासनका सार है। जिसके प्राप्त होने पर सिद्धस्वरूप आत्माकी साक्षात् प्राप्ति है । आत्मख्याति वृत्ति
इस प्रकार हम देखते हैं कि जिस प्रकार साररूप अपूर्व प्रमेयको सुस्पष्ट करनेवाला यह ग्रन्थराज है उसी प्रकार इसके हार्दको सरल, भावमयी और सुमधुर किन्तु सुस्पष्ट रचना द्वारा प्रकाशित करनेवाली तथा बुधजनों द्वारा स्मरणीय आचार्यवयं अमृतचन्द्रकी आत्म ख्याति वृत्ति है। यदि इसे वृत्ति न कहकर नय
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