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४४० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
इसका यत्किचित् भी पता नहीं लगता। इतना अवश्य है कि भट्टाकलंकदेवके तत्त्वार्थवातिकमें ऐसे उल्लेख अवश्य ही उपलब्ध होते हैं जो इस तथ्यके साक्षी है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य उनके पूर्वकी रचना है। इसलिए सुनिश्चित रूपसे यह माना जा सकता है कि वाचक उमास्वातिका तत्त्वार्थाधिगम भाष्य इन दोनों आचार्योंके मध्य कालमें किसी समय लिपिबद्ध हुआ है।'
सर्वार्थसिद्धि वृत्तिकी यह विशेषता है कि उसमें प्रत्येक सूत्रके सब पदोंकी व्याख्या नपे-तुले शब्दोंमें सांगोपांग की गई है । यदि किसी सूत्रके विविध पदोंमें लिंगभेद और वचनभेद हैं तो उसका भी स्पष्टीकरण किया गया है। यदि किसी सूत्रमें आगमका वैमत्य होनेका सन्देह प्रतीत हुआ तो उसकी सन्धि बिठलाई गई है और यदि किसी सूत्रमें एकसे अधिक बार 'च' शब्दकी' तथा कहीं 'तु' आदि शब्दका प्रयोग किया गया है तो उनकी उपयोगिता पर भी प्रकाश डाला गया है । तात्पर्य यह है कि यह रचना इतनी सुन्दर और सर्वांगपूर्ण बन पड़ी है कि समग्र जैन वाङ्मयमें उस शैलीमें लिखे गये दूसरे वृत्ति, भाष्य या टीका ग्रन्थका उपलब्ध होना दुर्लभ है । यह वि० सं० की पांचवी शताब्दिके उत्तरार्धसे लेकर छठी शताब्दिके पूर्वार्धमें इस बीच किसी समय लिपिबद्ध हई है । अनेक निर्विवाद प्रमाणोंसे आचार्य पूज्यपादका यही वास्तव्यकाल सुनिश्चित होता है। इतना अवश्य है यह उनके द्वारा रचित जैनेन्द्र व्याकरणके बाद की रचना होनी चाहिए।
२. तत्त्वार्थवार्तिकभाष्य तत्त्वार्थसूत्रके विस्तृत विवेचनके रूपमें लिखा गया तत्त्वार्थवातिकभाष्य यह दूसरी अमर कृति है। सर्वार्थसिद्धिके प्रायः सभी मौलिक वचनोंको भाष्यरूपमें स्वीकार कर इसकी रचना की गई है। इस आधारसे इसे तत्त्वार्थसूत्रके साथ सर्वार्थसिद्धिका भी विस्तत विवेचन स्वीकार करने में अत्युक्ति प्रतीत नहीं होती। समग्र जैन परम्परामें भट्ट अकलंक देवकी जैसी ख्याति है उसीके अनुरूप इसका निर्माण हुआ है इसमें सन्देह नहीं । इसमें कई ऐसे नवीन विषयोंपर प्रकाश डाला गया है जिनका विशेष विवेचन सर्वार्थसिद्धिमें उपलब्ध नहीं होता। उदाहरणस्वरूप प्रथम अध्यायके ८वें सत्रको लीजिए। इसमें अनेकान्त विषयको जिस सुन्दर अर्थगर्भ और सरल शैलीमें स्पष्ट किया गया है वह अनुपम है। इसी प्रकार दूसरे अध्यायमें ५ भावोंके प्रसंगसे सान्निपातिक भावोंका विवेचन तथा चौथे अध्यायके अन्तमें एनः अनेकान्तका गम्भीर विवेचन इस रचनाकी अपनी विशेषता है। अनेक प्रमाणोंसे भद्र अकलंक देवका वास्तव्य काल वि० सं० ८वीं शताब्दिका पूर्वार्ध स्वीकार किया गया है, इसलिये यह रचना उसी समयकी माननी चाहिए ।
३. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकभाष्य तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकभाष्य यह तत्त्वार्थसूत्रकी विस्तृत व्याख्याके रूपमें लिखी गई तीसरी अमर कृति है । इसके रचियता आचार्य विद्यानन्द हैं। इनकी अपनी एक शंत्री है जो उन्हें आचार्य समन्तभद्र और भट्ट अकलंक देवकी विरासतके रूपमें प्राप्त हुई है। यही कारण है कि तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकभाष्यकी समग्र रचना दार्शनिक शैलीमें हई है। इस रचनाका आधेसे अधिक भाग प्रथम अध्यायको दिया गया है और शेष भागमें नौ अध्याय समाप्त किये गये हैं। उसमें भी प्रथम अध्यायके प्रथम सूत्रकी रचनाकी अपनी खास विशेषता है । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र तीनों मिलकर मोक्षमार्ग है यह सामान्य वचन है। इसके विस्तृत और यथावत् स्वरूपका
१. देखो तत्त्वार्थ भाष्य अ० ३ सू० १ आदि । ३. देखो, अ० ४, सू० २२ । ५. देखो, अ० ४, सू० ३१ ।
२. अ० देखो, १, स० १ आदि । ४. अ० २, सू० १ । ६. देखो, सर्वार्थसिद्धि प्रस्तावना, पृ० ८८।
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