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चतुर्थ खण्ड : ४३३
उत्तरोत्तर अशुभ भावोंमें हानि होनेके साथ जीवोंके परिणामोंमें विशुद्धि बढ़ती जाती है, तदनुसार शुभ प्रकृतियोंके अनुभागमें वृद्धि होती जाती है। प्रयोजनकी बात इतनी है कि यहाँ सर्वत्र स्थितिबन्ध और अनुभाग बन्धका मुख्य कारण कषाय है।
जीव रूप-रस-गन्ध और स्पर्शसे रहित है, किन्तु पुदगल रूप-रस-गन्ध और स्पर्शवाला है। इसलिए पुद्गल पुद्गलमें जो स्पर्श निमित्तक संक्लेष बन्ध होता है वह जीव और पुद्गलमें नहीं बन सकता, क्योंकि जीवमें स्पर्श गुणका सर्वथा अभाव है। यही कारण है कि जीव और द्रव्य कर्मका अन्योन्य प्रदेशानुप्रदेशरूप बन्ध बतलाया गया है। जीवका कर्मोके साथ संक्लेष बन्ध नहीं होता क्योंकि संक्लेष बन्ध पुद्गलों पुद्गलों में होता है इत्यादि अनेक विशेषताओंकी इस अधिकार द्वारा सूचना मिलती है।
नौवें अध्यायमें संवर और निर्जरा तत्त्वका तथा उनके कारणोंका सांगोपांग विवेचन किया गया है। शुभाशभ भावका नाम आस्रव है, अतः उन भावोका निरोध होना संवर है। यों तो गुणस्थान परिपाटीके अनुसार विचार करने पर विदित होता है कि मिथ्यात्वके निमित्तसे बन्धको प्राप्त हानेवाले कर्मोका सासादन गुणस्थानमें द्रव्य संवर है, किन्तु संवरमें भाव संवरकी मुख्यता होनेसे उसका प्रारम्भ चतुर्थ गुणस्थानसे ही समझना चाहिए, क्योंकि एक तो सम्यग्दृष्टिके अनुभूतिके कालमें शुभाशुभ भावोंका वेदन न होकर रत्नत्रय परिणत ज्ञायक स्वभाव आत्माका अनुभव होता है, दूसरे शुभाशुभ भावोंमें हेय बुद्धि हो जाती है, और तीसरे उसके दर्शन मोहनीय तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभरूप कषाय परिणामका सर्वथा अभाव हो जाता है । यद्यपि इसके वेदकसम्यक्त्वके कालमें सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय बना रहता है, पर उस अवस्थामें भी सम्य दर्शनस्वरूप स्वभाव पर्यायका अभाव नहीं होता । फिर भी यहाँ पर नौवें अध्यायमें संवरको जो गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित्र स्वरूप कहा है सो वह संवर विशेषको ध्यानमें रखकर ही कहा है। यहाँ संवरके प्रकारोंमें गुप्ति मुख्य है। इससे यह तथ्य सूतरां फलित हो जाता है कि समिति आदिमें जितना निवृत्यंश है व संवर स्वरूप है, आत्मातिरिक्त अन्यके व्यापारस्वरूप प्रवृत्यंश नहीं। यद्यपि तपका धर्ममें ही अन्तर्भाव हो जाता है, परन्तु वह जैसे संवरका हेतु है वैसे ही निर्जराका भी हेतु है यह दिलानेके लिये उसका पृथक्से निर्देश किया है ।
आचार्य गच्छपिच्छने कहाँ कितने परीषह होते है इस विषयका निर्देश करते हुए उनका कारण परीषह और कार्य परीषह ये दो विभाग स्वीकार कर विचार किया है। इस अध्यायमें परीषह सम्बन्धी प्ररूपणा ८ वें सूत्रसे प्रारम्भ होकर वह १७वें सूत्र पर समाप्त होती है। ८वें सूत्र में परीषहका लक्षण कहा गया है । ९ वें सूत्रमें परीषहोंका नाम निर्देश करते हुए ६ वीं परीषहके लिये स्पष्टतः नाग्न्य शब्दका ही उल्लेख किया गया है। इससे सूत्रकार एक मात्र दिगम्बर सम्प्रदायके पट्टधर आचार्य थे इसका स्पष्ट बोध हो जाता है। इसके बाद १०, ११ और १२ संख्याक सूत्रोंमें कारणोंकी अपेक्षा किसके किसने परीषह सम्भव है इस बातका निर्देश किया गया है । १३, १४, १५ और १६ संख्याक सूत्रोंमें उनके कारणोंका निर्देश किया गया है। इस प्रकार १०, ११ और १२ संख्याक सूत्रोंमें कारणकी अपेक्षा कारण परीषह होकर तथा १३, १४, १५ और १६ संख्याक सत्रोंमें उनके कारणोंका निर्देश कर आगे मात्र १७ वें सूत्र में कार्य परीषहोंका उल्लेख करते हुए बतलाया गया है कि एकजीवके कमसे कम एक और अधिकसे अधिक १९ परीषह होते हैं। उदाहरणस्वरूप हम बादरसाम्पराय जीवको लेते हैं। एक कालमें कारणोंकी अपेक्षा इसक सब परीषह बतलाकर भी कार्यकी अपेक्षा कमसे कम एक और अधिकसे अधिक १९ परीषह बतलाये हैं । स्पष्ट है कि 'एकादश जिने' इस सूत्रमें जिनके जो ग्यारह परीषह
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