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४३० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
सूत्रोंको ही मूल सूत्रपाठ समझना चाहिए'। जोकि आचार्य कुन्दकुन्द विक्रमकी प्रथम शताब्दिके मध्यमें हुए अन्वयमें हुए उन्हींके अन्यतम शिष्य आचार्य गृद्धपिच्छ की अनुपम रचना है ।
५. विषय परिचय
मूल तत्त्वार्थसूत्रमें १० अध्याय और ३५७ सूत्र हैं यह पहले बतला आये हैं । उसका प्रथम सूत्र है- 'सम्यग्दर्शन- ज्ञान- चारित्राणि मोक्षमार्गः इसका समुच्चय अर्थ है - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूपसे परिणत आत्मा मोक्षमार्ग है । मोक्षमार्गका ही दूसरा नाम आत्मधर्म है । इसका आशय यह है कि रत्नत्रय परिणत आत्मा ही मोक्षका अधिकारी होता है, अन्य नहीं । वहाँ इन तीनोंमें सम्यग्दर्शन मुख्य है, इसीलिए भगवान् कुन्दकुन्दने दर्शन प्राभृतमें इसे धर्मका मूल कहा है । अतः सर्वप्रथम इसके स्वरूपका निर्देश करते हुए वहाँ बतलाया है- 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।' जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्वार्थ हैं । पुण्य और पाप आस्रव और बन्धके विशेष होनेसे यहाँ उनकी पृथक्से परिगणना नहीं की गई है । इनका यथावस्थित स्वरूप जानकर आत्मानुभूति स्वरूप आत्म रुचिका होना सम्यग्दर्शन है यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है ।
परमागम में सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके जिन बाह्य साधनोंका निर्देश किया गया है उनमें देशनालब्धि मुख्य है। छह द्रव्य और नौ पदार्थोंके उपदेशका नाम देशना है । उस देशनारूपसे परिणत आचार्यादिका लाभ होना और उपदिष्ट अर्थके ग्रहण, धारण तथा विचार करनेरूप शक्तिका समागम होना देशनालब्धि है । प्रथमादि तीन नरकों में प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके जिन तीन बाह्य कारणोंका निर्देश किया गया है उनमें एक धर्मश्रवण भी है। इस पर किसी शिष्यका प्रश्न है कि प्रथमादि तीन नरकोंमें ऋषियोंका गमन न होनेसे धर्मश्रवणरूप बाह्य साधन कैसे बन सकता है ? इसका समाधान करते हुए बतलाया है कि वहाँ पूर्व भवके सम्बन्धी सम्यग्दृष्टि देवोंके निमित्तसे धर्मोपदेशका लाभ हो जाता है। इस उल्लेख में 'सम्यग्दृष्टि' पद ध्यान देने योग्य है। इससे विदित होता है कि मोक्षमार्ग के प्रथम सोपानस्वरूप सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिमें सम्यग्ज्ञानीका उपदेश ही प्रयोजनीय होता है । इतना अवश्य है कि जिन्हें पूर्व भवमें या कालान्तर में धर्मोपदेशकी उपलब्धि हुई है उनके जीवन में उसका संस्कार बना रहनेसे वर्तमान में साक्षात् धर्मोपदेशका लाभ न मिलने पर भी आत्म जागृति होनेसे सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो जाती है । इन्हीं दोनों तथ्योंको ध्यानमें रखकर तत्त्वार्थ सूत्र में - ' तन्निसर्गादधिगमाद्वा' इस तीसरे सूत्रकी रचना हुई है ।
तत्वार्थ कौन-कौन हैं जिनके श्रद्धानसे सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होती है इस बातका ज्ञान करानेके लिये 'जीवाजीवास्रव' - इत्यादि सूत्रकी रचना हुई है । मोक्ष मार्गमें निराकुलता लक्षण सुखकी प्राप्ति जीवका मुख्य प्रयोजन है, इसलिये सात तत्त्वार्थों में प्रथम स्थान चैतन्य लक्षण जीवका है । अजीव ( स्व से भिन्न अन्य) के प्रति अपनत्व होनेसे जीव की संसार परिपाटी चली आ रही है, इसलिये सात तत्त्वार्थोंमें दूसरा स्थान अजीवका है । ये दो मूलतत्त्वार्थ हैं । इनके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले शेष पाँच तत्त्वार्थ है । जिनमें संसार और उनके कारणों तथा मोक्ष और उनके कारणोंका निर्देश किया गया है ।
१. इस विषय के विशेष ऊहापोहके लिए सर्वार्थसिद्धिकी प्रस्तावना पर दृष्टिपात कीजिए । २. जीवस्थान चूलिका पृ० २०४१४, जीवस्थान चूलिका, नौवीं चूलिका सूत्र ७ व ८ । ३. जीवस्थान चूलिका, पृ० ४२२ ।
४. पंचास्तिकाय, गाथा १०८, समय व्याख्या टीका ।
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