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चतुर्थ खण्ड : ४२९ 'तह गिद्धपिच्छाइरियप्पयासिदतच्चत्थसुत्ते वि' वर्तना-परिणामक्रियापरत्वापरत्वेच कालस्य' इदि दव्वकालो परूविदो'।
इस उल्लेखमें तत्त्वार्थसूत्र को गृद्धपिच्छाचार्य द्वारा प्रकाशित कहा गया है । __ आचार्य विद्यानन्दने भी अपने तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिकमे इन शब्दों द्वारा तत्त्वार्थसूत्रको आचार्य गृद्धपिच्छकी रचनाके रूपमें स्वीकार किया है-'गणाधिप-प्रत्येकबुद्ध-श्रुतिकेवल्यभिन्न दर्शपूर्वधर सूत्रेण स्वयंसम्मतन व्यभिचार इति चेत् ? न, तस्याप्यर्थतः सर्वज्ञवीतराग प्रणेतकत्वसिद्धेरहद्भाषितार्थं गणधरदेवैतिथमिति वचनात् एतेन गद्धपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसत्रेण व्यभिचारता निरस्ता।'
ये दोनों समर्थ आचार्य विक्रम ९वीं शताब्दीके पूर्वार्धमें हुए हैं। इससे विदित होता है कि इनके कालतक आचार्य कुन्दकुन्दके पट्टधर एकमात्र आचार्य गृद्धपिच्छ ही तत्त्वार्थसूत्रके रचयिता स्वीकार किए जाते थे। उत्तर कालमें भी इस तथ्यको स्वीकार करनेमें हमें कहीं कोई मतभेद नहीं दिखलाई देता, जिसकी पुष्टि वादिराजसूरिके पार्श्वनाथचरितसे भी होती है। वहाँ वे शास्त्रकारके रूपमें आचार्य गृद्धपिच्छके प्रति बहुमान प्रकट करते हुए लिखते हैं
'अतुच्छगुणसम्पातं गृद्धपिच्छं नतोऽस्मितम् ।
पक्षी कुर्वन्ति यं भव्या निर्वाणायोत्पतिष्णवः ।।' वादिराजसूरि शास्त्रकारोंका नामस्मरण कर रहे है । उसी प्रसंगमें यह श्लोक आया है। इससे विदित होता है कि वे भी तत्त्वार्थसूत्रके रचयिताके रूपमें आचार्य गृद्धपिच्छको स्वीकार करते रहे ।
यद्यपि श्रवणबेलगोलाके चन्द्रगिरी पर्वत पर कुछ ऐसे शिलालेख पाये जाते हैं जिनमें आचार्य गद्ध पिच्छ और उमास्वातिको अभिन्न व्यक्ति मानकर शिलालेख १०५ में उमास्वातिको तत्त्वार्थसूत्रका कर्ता स्वीकार किया गया है। किन्तु इनमेंसे शिलालेख ४३ अवश्य ही विक्रमकी १२वीं शताब्दिके अन्तिम चरणका है। शेष सब शिलालेख १३वीं शताब्दि और उसके बादके हैं। जिस शिलालेखमें उमास्वातिको तत्त्वार्थसूत्रका रचयिता कहा गया है वह तो १५वीं शताब्दिका है। किन्तु मालूम पड़ता है कि ८वीं ९वीं शताब्दि या उसके बाद श्वेताम्बर परम्परामें तत्त्वार्थसूत्रके रचयिताके रूपमें उमास्वातिकी प्रसिद्धि होनेपर कालान्तरमें दिगम्बर परम्परामें उक्त प्रकारके भ्रमकी सृष्टि हुई है। अतः उक्त शिलालेखोंसे भी यही सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्र अन्य किसीकी रचना न होकर मूलमें एकमात्र गृद्धपिच्छाचार्यकी ही अमर कृति है । शिलालेख १०५ में जिन उमास्वातिको तत्त्वार्थसूत्रका रचयिता कहा गया है वे अन्य कोई न होकर आचार्य कुन्दकुन्दके पट्टधर आचार्य गद्धपिच्छ ही हैं। श्वेताम्बर परम्पराके वाचक उमास्वाति इनसे सर्वथा भिन्न व्यक्ति हैं । आचार्य गृद्धपिच्छ और वाचक उमास्वातिके वास्तव्य काल में भी बड़ा अन्तर है। आचार्य गद्धपिच्छ का वास्तव्य काल जबकि पहली शताब्दिका उत्तरार्ध और दूसरी शताब्दिका पूर्वार्ध निश्चित हुआ है। इसलिए श्वेताम्बर परम्परामें जो तत्त्वार्थाधिगम भाष्यमान्य सूत्रपाठ पाया जाता है वह मूल सूत्रपाठ न होकर सर्वार्थसिद्धिमान्य
१. शिलालेख ४०, ४२, ४३, ४७ व ५० । २. धर्मघोष सूरीकृत दुःषमकाल श्रमण संघस्तव, धर्मसागर गणिकृत तपागच्छ पद्रावलि और जिनविजय
सूरीकृत लोक प्रकाश ग्रन्थ ।
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