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चतुर्थ खण्ड : ४२७
तत्त्वार्थसूत्र है । तदनुसार इसके दसों अध्यायोंके सूत्रोंको संख्या ३५७ है। यथा-अ० १ में सूत्र ३३, अ० २ में सूत्र ५३, अ० ३ में सूत्र ३९, अ० ४ में सूत्र ४२, अ० ५ में सूत्र ४२, अ० ६ में सूत्र २७, अ० ७ में सूत्र ३९, अ० ८ में सूत्र २८, अ० ९ में सूत्र ४७ और अ० १० में सूत्र ९, कुल ३५७ सूत्र ।
श्वेताम्बर परम्परामें तत्त्वार्थाधिगम भाष्यकी रचना होने पर मलसूत्र पाठमें संशोधन कर दसों अध्यायों में जो सूत्र संख्या निश्चित हुई उसका विवरण इस प्रकार है-अ० १ में सूत्र ३५, अ० २ में सूत्र ५२, अ० ३ में सूत्र १८, अ० ४ में सूत्र ५३, अ० ५ में सूत्र ४४, अ० ६ में सूत्र २६, अ० ७ में सूत्र ३४, अ० ८ में सूत्र २६, अ० ९ में सूत्र ४९, अ० १० में सूत्र ७, कुल ३४४ सूत्र' । ३. मंगलाचरण
तत्त्वार्थसूत्रकी प्राचीन अनेक सूत्र पोथियोंमें तथा सर्वार्थसिद्धि वत्तिमें इसके प्रारम्भमें यह प्रसिद्ध मंगल श्लोक उपलब्ध होता है
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् ।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ किन्तु तत्त्वार्थसूत्रकी प्रथम वृत्ति सर्वार्थसिद्धि है, उसमें तथा उत्तरकालीन अन्य भाष्य और टीका ग्रन्थोंमें उक्त मंगल श्लोककी व्याख्या उपलब्ध न होनेसे कतिपय विद्वानोंका मत है कि उक्त मंगल श्लोक मूल ग्रन्थका अंग नहीं है । सर्वार्थसिद्धिकी प्रस्तावनामें हमने भी इसी मतका अनुसरण किया है । किन्तु दो कारणोंसे हमें स्वयं वह मत सदोष प्रतीत हुआ । स्पष्टीकरण इस प्रकार है:
१ आचार्य विद्यानन्द उक्त मंगल श्लोकको सूत्रकारका स्वीकार करते हुए आप्तपरीक्षाके प्रारम्भमें लिखते हैं
_ 'किं पुनस्तत्परमेष्टिनो गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ सूत्रकाराः प्राहुरिति निगद्यते ।' आप्तपरीक्षाका उपसंहार करते हुए वे पुनः उसी तथ्यको दुहराते हैं
श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राद्भुतसलिलनिधेरिद्धरत्नोद्भवस्य, प्रोत्थानारम्भकाले सकलमलभिदे शास्त्रकारैः कृतं यत् । स्तोत्र तीर्थोपमानं प्रथितपथुपथं स्वामिमीमांसितं तत् ।
विद्यानन्दैः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्धयै ।।१२३।। प्रकृष्ट सम्यग्दर्शनादिरूपी श्लोकोंकी उत्पत्तिके स्थान भूत श्रीमत्तत्वार्थशास्त्ररूपी अद्भुत समुद्रकी रचनाके आरम्भ कालमें महान मोक्ष पथको प्रसिद्ध करनेवाले और तीर्थोपमस्वरूप जिस स्तोत्रको शास्त्रकारोंने समस्त कर्ममलका भेदन करनेके अभिप्रायसे रचा है और जिसकी स्वामी (समन्तभद्र आचार्य) ने मीमांसा की है उस स्तोत्रके सत्य वाक्यार्थकी सिद्धिके लिए विद्यानन्दने अपनी शक्तिके अनुसार किसी प्रकार निरूपण किया है ॥१२३॥ इसी तथ्यको उन्होंने पुनः इन शब्दों में स्वीकार किया है
इति तत्त्वार्थशास्त्रादौ मुनोन्द्रस्तोत्रगोचरा ।
प्रणीताप्तपरीक्षेयं विवादविनिवृत्तये ॥१२४॥ इस प्रकार तत्त्वार्थशास्त्रके प्रारम्भमें मुनीन्द्रके स्तोत्रको विषय करनेवाली यह आप्तपरीक्षा विवादको दूर करनेके लिए रची गई है ॥१२४॥ १. विशेषके लिए देखो, सर्वार्थसिद्धि प्र०, पृ० १७ से ।
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