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४२८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
__आप्त परीक्षाके ये उल्लेख असंदिग्ध हैं। इनसे विदित होता है कि आचार्य विद्यानन्दके समय तक उक्त मंगल श्लोक सूत्रकारकी कृतिके रूपमें ही स्वीकार किया जाता रहा है ।
२. एक और आचार्य विद्यानन्दने तत्त्वार्थसूत्रपर तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक नामक विस्तृत भाष्य लिखकर भी उसके प्रारम्भमें इस मंगल श्लोककी व्याख्या नहीं की और दूसरी ओर वे आप्तपरीक्षामें उसे सूत्रकारका स्वीकार करते हैं। इससे इस तर्कका स्वयं निरसन हो जाता है कि तत्वार्थ सूत्रके वृत्ति, भाष्य और टीकाकारोंने उक्त मंगल श्लोककी व्याख्या नहीं की, इसलिए वह सूत्रकारका नहीं है।
स्थिति यह है कि स्वामी समन्तभद्र द्वारा तत्त्वार्थसूत्रके उक्त मंगल श्लोक की स्वतन्त्र व्याख्याके रूपमें आप्त मीमांसा लिखे जानेपर उत्तरकालीन पूज्यपाद आचार्यने तत्त्वार्थसत्रपर वृत्ति लिखते हुए उसके प्रारम्भम उक्त मंगल श्लोककी पुनः व्याख्या लिखनेका उपक्रम नहीं किया। भट्ट अकलंकदेवने आप्तमीमांसापर अष्टशती लिखी ही है, इसलिए तत्त्वार्थसत्रपर अपना तत्त्वार्थ भाष्य लिखते समय उन्होंने भी उक्त मंगल श्लोकको स्वतन्त्र व्याख्या नहीं लिखी। यद्यपि आचार्य विद्यानन्दने उक्त मंगल श्लोककी व्याख्याके रूपमें स्वतन्त्र रूपसे आप्त परीक्षा लिखी है । परन्तु उसका कारण अन्य है । बात यह है कि आप्तमीमांसापर भट्ट अकलंकदेव द्वारा निर्मित अष्टशतीके समान स्वयं द्वारा निर्मित अष्टसहस्रीको अति कष्टसाध्य जानकर ही उन्होंने उक्त मंगल श्लोककी स्वतन्त्र व्याख्याकी रूपमें आप्तपरीक्षाकी रचना की। स्पष्ट है कि उक्त मंगल श्लोकको सूत्रकारकी ही अनुपम कृतिके रूपमें स्वीकार करना चाहिए।
४. सूत्रकार और रचनाकालनिर्देश
आचारशास्त्रका नियम है कि अर्हत धर्मका अनुयायी साध अन्तः और बाहर परम दिगम्बर और सब प्रकारकी लौकिकताओंसे अतीत होता है। यही कारण है प्राचीन कालमें सभी शास्त्रकार शास्त्रके प्रारम्भम या अन्तमें अपने नाम, कुल, जाति और वास्तव्य स्थान आदिका उल्लेख नहीं करते थे। वे परमार्थसे स्वयका उस शास्त्रका रचयिता नहीं मानते थे। उनका मुख्य प्रयोजन परम्परासे प्राप्त वीतरागताकी प्रतिपादक द्व दशांग वाणीको संक्षिप्त, विस्तृत या भाषान्तर कर संकलन कर देना मात्र होता था। उसमें भी उस कालमें उस विषयका जो अधिकारी विद्वान होता था उसे ही संघ आदिके ओरसे यह कार्य सौंपा जाता था। अन्यथा प्ररूपणा न हो जाय इस बातका पूरा ध्यान रखा जाता था। वे यह अच्छी तरहसे जानते थे कि किसी शास्त्रके साथ अपना नाम आदि देनेसे उसकी सर्व ग्राह्यता और प्रामाणिकता नहीं बढ़ती । अधिकतर शास्त्रोम स्थल-स्थलपर 'जिनेन्द्रदेवने ऐसा कहा है", 'यह जिन देवका उपदेश है', 'सर्वज्ञ देवने जिस प्रकार कहा है उस प्रकार हम कहते हैं।', इत्यादि वचनोंके उल्लेखोंके साथ ही प्रतिपाद्य विषयोंके लिपिबद्ध करनेकी परिपाटी थी । प्राचीन कालमें यह परिपाटी जितनी अधिक व्यापक थी. श्रतधर आचार्योंका उसके प्रति उतना ही अधिक आदर था । तत्त्वार्थसूत्रकी रचना उसी परिपाटीका एक अंग है. इसलिए उसमें उसका संकलयिता कोन है इसका उल्लेख न होना स्वाभाविक है। अतः अन्य प्रमाणोंके प्रकाशमें ही हमें इस तथ्यका निर्णय करना होगा कि आगमिक दृष्टिसे सर्वांगसुन्दर इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थका संकलयिता कौन है ?
इस दृष्टिसे सर्वप्रथम हमारा ध्यान आचार्य वीरसेन और आचार्य विद्यानन्दकी ओर जाता है। आचार्य वीरसेन जीवस्थान कालानुयोग द्वारा १० ३१६ में लिखते हैं
१. समयसार, गाथा ७० ।
२. समयसार, गाथा १५० ।
३. बोधपाहुड, गाथा ६१ ।
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