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अतिशयक्षेत्र निसईजी
१. प्रस्तावना
__ श्री जिन तारणतरणको पुण्य स्मृतिमें जिन धर्म-स्थानोंको चिरकालसे मूर्तिरूप मिला हुआ चला आ रहा है उन्हें निसई कहा जाता है। वे तीन है-निसई मल्हारगढ़, निसई ।सेमरखेड़ी और सूखा निसई । प्राप्त तथ्योंसे मालूम पड़ता है कि इन तीनोंकी स्थापना भी तीन कारणोंसे हुई थी। निसई मल्हारगढ़ वह पुनीत स्थान है जहाँ स्वामीजीने आहार और ईहितसे विरत हो समाधिपूर्वक इस भवसे चिरविश्रान्ति ले परलोककी यात्राको सुगम बनाया था। निसई सेमरखेड़ी उनके दीक्षा, ध्यान, अध्ययनके साक्षीके रूपमें निर्मित हुआ है तथा सूखा निसई कहते हैं कि वह क्षेत्र प्रचारके केन्द्र रूपमें निर्मित हुआ है।
__ इस प्रकार श्री जिन तारण-तरणकी पुण्यस्मृतिमें निर्मित ये तीन धर्मस्थान हैं । उनमें निसई मल्हारगढ़ यह अर्थगर्भ नाम है । ऐसा नियम है कि जिस स्थानपर कोई साधु आदि महापुरुष समाधिपूर्वक देह त्याग करते है उनकी पुण्यस्मृतिको चिरस्थायी बनाये रखनेके लिए उसके चिह्नस्वरूप जिस धरती आदिका निर्माण किया जाता है उसे निषद्या कहते हैं। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए अनगारधर्मामृतमें लिखा भी है कि सिद्धान्तके जानकार साधुके इहलीला समाप्त करनेपर उनके शरीरके समक्ष और निषद्यामें सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, योगिभक्ति और शान्तिभक्तीः कुर्यात् । अनगारधर्मामृत अध्ययन ९-श्लोक ७२-७३ ।
इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए षट्खण्डागम वेदनाखण्डमें स्वयं गौतम गणधर द्वारा रचित ४४ मंगलसूत्रोंको निबद्ध करते हुए आचार्य पुष्पदंत-भुतबलिने एक वह मंगलसूत्र निबद्ध किया है
णमो लोए सव्वसिद्धायदाणं ॥४३॥
लोकमें सब सिद्धायननोंको नमस्कार हो ॥४३॥ इस सूत्रकी टीका करते हुए आचार्य वीरसेन लिखते हैं
सव्वसिद्धियरेण पुव्वं परूबिदासे सजिणाणं गहणं कायव्यं, जिणेहितों पुछभूद देस-सव्वसिद्धाणामणुवलंभादो । सव्वसिद्धारणमायदणाणि सव्व सिद्धायदणाणि | एदेण कट्टिभाकट्टिम जिणहष्णं जिणपडिमाण भी सिपब्भारूजंत-चंपा-पावाणयरादि विसयणिसीहियाणं च गहणं ।।
"सब सिद्ध" इस वचनसे पूर्वमें कहे हुए समस्त जिनोंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि जिनोंसे पृथग्भूत देश जिन और सर्वजिन नहीं पाये जाते । जो सब सिद्धोंके आयतन हैं वे सब सिद्ध आयतन कहलाते है। इससे कृत्रिम और अकृत्रिम जिनधर, जिनप्रतिमाएँ, ईषत्प्राग्भार भूमि, ऊर्जयन्त, चम्पापुरी और पावानगर आदि निषीधिकाओंका ग्रहण हो जाता है । धवका० पुस्तक ९ सूत्र ४३ टीकाका श्री भगवती आराधना समाधिका प्रमुख आगम ग्रन्थ है। इसमें स्पष्ट बतलाया है कि जहाँ क्षपकके शरीरको स्थापित किया जाना है उसे निषाधिका कहते हैं । वह कैसी होनी चाहिए इसका विवेचन करते हुए लिखा है कि वह एकान्त स्थानमें होनी चाहिए । जनशून्य स्थानपर होनी चाहिए, नगर आदि से न अतिदूर हो न अति सन्निकट हो, विस्तीर्ण होनी चाहिए, प्रासुक और अतिदृढ़ होनी चाहिए, सूक्ष्म त्रसजीवोंके संचारसे रहित होनी चाहिए, प्रकाशवाली होनी चाहिए, समभूमि होनी चाहिये, गीली नहीं होनी चाहिए, छिद्र रहित होनी चाहिए तथा बाधा रहित होनी चाहिए । यथा
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