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चतुर्थखण्ड : ४२३
यहाँ कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णिके विषय में संकेत कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि गाथामें 'तं कालं बीयठि इं' पाठ है उसका चूर्णिकारने जो अनुवाद किया है वह मूलानुगामी नहीं है । मालूम पड़ता है चूर्णिका अनुकरणमात्र है । इतना अवश्य है कि कषायप्राभृत चूर्णिका वाक्यरचना पीछेके विषयविवेचनके अनुसन्धानपूर्वककी गई है और कर्मप्रकृति चूर्णिकी उक्त वाक्यरचना इससे पूर्वकी गाथा और उसकी चूर्णिके विषय विवेचनको ध्यानमें न रखकर की गई है । जहाँ तक कर्म प्रकृतिकी उक्त मूल गाथाओंपर दृष्टिपात करनेसे विदित होता है कि उन दोनों गाथाओं द्वारा दिगम्बर आचार्यों द्वारा प्रतिपादित मतका ही अनुसरण किया है, किन्तु उक्त चूर्णि और उसको टीका मूलका अनुसरण न करती हुई श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा प्रतिपादित मतका ही अनुसरण करती । फिर भी यहाँ विसंगतिकी सूचक उल्लेखनीय बात इतनी है कि श्वेताम्बर आचार्यांने उक्त टीकाओं में व अन्यत्र मिथ्यात्व के तीन हिस्से मिथ्यात्व गुणस्थानके अन्तिम समय में स्वीकार करके भी उनमें मिथ्यात्वके द्रव्यका विभाग उसी समय न बतलाकर प्रथमोपशम सम्यक्त्वके प्रथम समयमें स्वीकार किया हैं । यहाँ विसंगति यह है कि मिथ्यात्व गुणस्थान अन्तिम समय में तो तीन भाग होनेकी व्यवस्था स्वीकार की गई और उन तीनों भागों में कर्मपुंजका बँटवारा प्रथमोपशम सम्यक्त्वके प्रथम समयसे स्वीकार किया गया ।
इस प्रकार इन दोनों परम्पराओंके प्रमाणोंसे स्पष्ट है कि कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि पर दिगम्बर आचार्योंने टीका लिखी, केवल इसलिए हम उन्हें दिगम्बर आचार्योंकी कृति नहीं कहते । किन्तु उनकी शब्दयोजना, रचना शैली और विषय विवेचन दिगम्बर परम्परा के अन्य कार्मिक साहित्यके अनुरूप है, श्वेताम्बर परम्पराके कार्मिक साहित्य के अनुरूप नहीं, इसलिए उन्हें हम दिगम्बर आचार्योंको अमर कृति स्वीकार करते हैं ।
अब आगे जिन चार उपशीर्षकोंके आचार्योंकी कृति सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है उन्होंने सर्वप्रथम 'दिगम्बर परम्पराने अमान्य तेवा कषायप्रभात चूर्णि अन्तगंर पदार्थो', इस उपशीर्षक के अन्तर्गत क० प्रा० चूर्णिका ऐसे दो उल्लेख उपस्थित किये हैं जिन्हें वे स्वमतिसे दिगम्बर परम्पराके विरुद्ध समझते हैं ।
अन्तर्गत उन्होंने कषायप्राभृत और उसकी चूर्णिको श्वेताम्बर उनपर क्रमसे विचार करते हैं
प्रथम उल्लेख है -- " सव्वलिंगेस भज्जाणि ।" इस सूत्रका अर्थ है कि अतीत में सर्व लिंगों में बँधा हुआ कर्म क्षपकके सत्तामें विकल्पसे होता है । इस पर उक्त प्रस्तावना लेखकका कहना है कि 'क्षपक चारित्रवेषमां होय पण खरो अने न पण होय चारित्रवान वेष वगर अर्थात् अन्य तापसादिना वेशमां रहेल जीव पण क्षपक थई शके एटले प्रस्तुत सूत्र दिगम्बर मान्यता थी विरुद्ध छे ।' आदि
अब सवाल यह है कि उक्त प्र० लेखकने उक्त सूत्र परसे यह निष्कर्ष कैसे फलित कर लिया कि 'क्षपक चारित्रवे-षमां होय पण खरो अने न पण होय चारित्रना वेष वगर अर्थात् अन्य तपासादिना वेशमां रहले जीव पण क्षपक थई शके छे ।' कारण वर्तमानमें जो क्षपक है उसके अतीत कालमें कर्मबन्धके समय कौनसा लिंगमें बाँधा गया कर्म क्षपकके वर्तमान में सत्ता में नियमसे होता है या विकल्पसे होता है ? इसी अन्तर्गत शंकाको ध्यान में रखकर यह समाधान किया गया है कि विकल्प होता है।' इस परसे कहाँ फलित होता है कि वर्तमान में वह क्षपक किसी भी वेशमें हो सकता है। मालूम पड़ता है कि अपने सम्प्रदाय के व्यामोह और अपने कल्पित वेशके कारण ही उन्होंने उक्त सूत्र परसे ऐसा गलत अभिप्राय फलित करनेकी चेष्टा की है ।
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