________________
४१० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
एगमा सालोगा णादिविकिट्ठाण चावि आसण्णा । वित्थिण्णा विद्धता णिसीहिया दूरभागाढ़ा ॥१९६२।। अविसुय असुचिर अधसा सा उश्रीवा बहुसमो असिणिद्धा ।
णिज्जतुगा अरहिदा अविला या तहा अणाबाधा ॥१९६३।। आगे जिस स्थानपर क्षपक समाधि स्वीकार करता है वह स्थान तीर्थ हो जाता है इसका उल्लेख इन शब्दोंमें करते हुए लिखा है
गिरिणदीयादियदेसा तित्थाणि तवोधणिहिं जदि उसिदा ।
तित्थं कर्षण हुज्जो तवगुणरासी सयं खवड ॥२००१|| यदि तपस्वियोंके द्वारा सेवित पहाड़, नदी आदि प्रदेश तीर्थ हो जाते हैं तो तपस्या आदि गुणोंकी राशिस्वरूप वह क्षपक तीर्थ क्यों नहीं होगा-असत् अवश्य होगा।
इस द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि क्षपकका समाधिभरण होनेपर आपका शरीर भी सायकशरीर नोआगमद्रव्य निक्षेपा पूज्य होता है। अब इसमेंसे क्षपकका आत्मा निर्गमन कर गया है, इसलिये उसकी उपेक्षा नहींकी जा सकती है।
इस उल्लेखसे इन दो बातोंपर स्पष्ट प्रकाश पड़ता है। प्रथम तो यह कि जो सिद्धतियाँ या तदितर भतियां हैं जहाँ तीर्थंकरादि महापुरुषोंने निर्वाण लाभ लिया है और जहाँ श्रमण-मुनियोंने जो संन्यास पूर्वक देहत्याग किया है उन्हें तो निषीधिका कहते ही हैं साथ ही जो उक्त महापुरुषोंकी पुण्यस्मृति स्वरूप अन्य धर्मस्थानोंका निर्माण किया जाता है उन्हें भी निषीधिका कहते हैं ।
इस दृष्टिसे जिस स्थानको हम निसई कहते है वह निषी धिका या निषद्यका ही बोलचालको भाषामें चालू नाम है जो उपयुक्त है। उसमें भी जो स्वामीजीका समाधिस्थान है वह तो मुख्य निसई है ही किन्तु इसके अतिरिक्त जो निसई सेमरखेड़ी और सखा निसई ये दो धर्मस्थान हैं उन्हें भी निसई कहने में बुराई नहीं है।
यह वस्तुस्थिति है। ऐसा होते हुए भी कुछ कालसे उक्त अर्थमें निसई शब्दोंको उपयुक्त न मानकर उसके स्थानमें निश्रेयी या निःश्रेणि शब्दका प्रयोग होने लगा है। पता नहीं कि उक्त अर्थमें निसई शब्दको ठीक न मानकर उसके स्थानमें निःश्रेणि शब्दका प्रयोग क्यों किया जाने लगा है। हम तो इसे कौन शब्द प्राचीन कालसे किस अर्थमें प्रयुक्त होता आ रहा है इसका ठीक ज्ञान न होनेका ही नतीजा समझते हैं। किसी महापुरुष या धर्मस्थानके प्रति आदर विशेष होना और बात है पर इससे मात्रसे उसके मूल स्वरूपको बदल कर अपने मनसे अन्य कल्पना करना और बात है। समझदार पुरुष भूलसे भी ऐसी गलती नहीं करते है । इसके विपरीत समझदारोंका यही कर्तव्य होता है कि प्राचीन कालसे जो शब्द जिस अर्थमें प्रयुक्त होता आ रहा है उसके पीछे एक छिपा हुआ इतिहास होनेके कारण उसमें परिवर्तन नहीं करते वस्तुतः निषद्यका निसई ही एक ऐसा परिवर्तित रूप है जिससे हम जानते हैं कि स्वामीजीने निर्ग्रन्थ अवस्थामें समाधिपर्वक इह लीला समाप्त कर इसी स्थानसे परलोक गमन किया था और इसी स्थानपर उनके शरीरका अन्तिम संस्कार होकर उनकी स्मृतिस्वरूप पुरानी परिपाटीके अनुसार निषद्याके रूपमें एक छतरीका निर्माण किया गया था जिसे उत्तर कालमें निसई कहा जाने लगा। मारवाड़में जो निसईके स्थानमें नसिया कहनेकी परिपाटी चल पड़ी है सो यह भी उसीका देशी रूप है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org