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४०८: सिद्धान्ताचार्य पं० फलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
गर्भ निश्चयनय प्रधान ज्ञानसमुच्चयसार, उपदेशसुद्धसार और त्रिभंगीसारकी रचना की है। इसीलिए ठिकाने सारके लेखकने इन तीन ग्रन्थोंकी परिगणना सारमति अर्थात् व्यवहारगर्भ निश्चयनयके विषय रूपमें की है।
विचारका अर्थ है प्रकृति विषयमें मनोयोगपूर्वक उपयुक्त होना । पण्डितपूजा आदि तीन बत्तीसियोंमें जिन विषयोंकी संकलता है वह अर्थ गर्भ है । लगता है इसे ठिकानेसारके लेखकने अवश्य ही हृदयंगत किया होगा । इसीलिए उसने इन तीन ग्रन्थोंको भी विचारमति अर्थात् व्यवहार गर्भ निश्चयनयके विषय रूपमें परिगणित किया है।
___ ममल यह स्वामीजीका निर्मल या अमलके अर्थमें आया हुआ पारिभाषिक शब्द है। ठिकानेसार और चौबीसठाणा ये आत्ममग्नताकी ओर ले जाने वाले शुभोपयोग बहुल ग्रन्थ हैं, इस अभिप्रायको साधकर ही ठिकानेसारके लेखकने इनकी परिगणना ममलमति अर्थात् अध्यात्मगर्भ व्यवहारनयके विषय पमें की है।
केवलमतिमें केवल पदसे स्वामीजीको जो इष्ट रहा है यह ठिकानेसारके लेखककी दृष्टिसे रहस्यपूर्ण है। मेरी नम्र रायमें वह रहस्य यह हो सकता है यथा जब हम सिद्धिस्वभाव और शून्यस्वभावके विषयकी दष्टिसे विचार करते हैं तब तो केवल पदका अर्थ होता है, अकेला आत्मा। संयोग और संयोगी भावोंसे भिन्न अकेले आत्माको देखने पर यह आत्मा सिद्धोंके समान स्वतःसिद्ध, अनादि अनन्त विज्ञानधन चिन्मात्र प्रतीत होता है । और जब खातिका विशेषके विषयकी दृष्टिसे विचार करते हैं तब केवल पदका अर्थ होता है कि अकेला आत्मा ही अपने अपराधके कारण नरकादि योनियोंका पात्र होता है और जब नाममाला तथा छद्मस्थवाणीके विषयकी दुष्टिसे विचार करते हैं तब केवल पदका अर्थ होता है अपने इतिवृत्तको इतिहास सजोया जाना क्योंकि इन दोनों ग्रन्थोंमें स्वामीजीके कालके उन सम्बन्धी मौलिक इतिहासको ही यथा सम्भव संजोया है। इस प्रकार ठिकानेसारके लेखकने स्वामीजीकी सब रचनाओंको जो पाँच भागोंमें वि है उसका यह आशय प्रतीत होता है। भाषा
दो-तीन ग्रन्थोंको छोड़कर स्वामीजी द्वारा रचित ग्रन्थों की भाषा अपनी है। यह ऐसा सिक्का है जो अलगसे टकसालमें ढाला गया है किन्तु है वह सरस और मूल विषयको स्पर्श करने वाली ही । साधारणतः प्रत्येक ग्रन्थकार प्राकृत, पाली, संस्कृत, अपभ्रंश या देशीय किसी एक भाषामें अपने ग्रन्थकी रचना करता है। यदि दो भाषाओंका भो आलम्बन लेना है तो उनकी अपनी स्वतन्त्रता बनाये रखना है। किन्तु स्वामीजीने भाषा विषयक इन परतन्त्रताको भी स्वीकार नहीं किया है। यह तो है कि वे मलतः मध्यप्रदेश में जन्मे थे, वहीं बडे हए साथ ही वहीं रहते हुए उन्होंने धर्मग्रन्थोंका अध्ययन किया था इसलिए उनकी रचनाओंमें जहाँ बन्देलखण्डमें बोली जानेवाली भाषाका समावेश दृष्टिगोचर होता है वहाँ प्राकृत, संस्कृत और अपभ्रंश भाषाका भी योगदान दिखाई देता है । इस प्रकार यह स्वामीजी द्वारा स्वीकृत अपनी भाषा होते हुए भी ऐसी अटपटी भी नहीं है कि कोई भी तत्वज्ञानरो सुपरिचित स्वाध्याय प्रेमी या अध्ययनशील व्यक्तिको अध्ययन करते समय विवक्षित ग्रन्थ, वाक्य या पदका अर्थ हृदयंगम करने में किसी प्रकार कठिनाईका अनुभव करना पड़े। किसी एक सिक्केके समान किसी भी वाक्य या पदको एकबार समझ लीजिए, उसके बाद निर्बाधरूपसे परे ग्रन्थका स्वाध्याय कीजिए, उतना ही आनन्द आयेगा जितना उनसे पूर्ववर्ती मनीषियोंके ग्रन्थोंका स्वाध्याय करते समय आता है।
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