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४१८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
उक्त प्रकार से चूर्णिसूत्रोंकी रचना तभी संगत होती है जब उनके रचे जाने वाले ग्रन्थका मूल या चूर्णिमें नामोल्लेख किया गया हो ।
इस प्रकार सूक्ष्मतासे विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि 'पुव्वम्मि पंचमम्मि दु' इत्यादि गाथा प्रक्षिप्त न होकर अन्य १८० गाथाओंके समान ग्रन्थकी मूल गाथा ही है ।
दूसरी सूत्रगाथा है— 'गाहासदे असीदे' इत्यादि । इसके पूर्व पाँच प्रकारके उपक्रम के भेदोंका निर्देश करते हुए अन्तिम चूर्णिसूत्र है
'अत्थाहियारो पण्णा रसविहो ।'
यह वही गाथा है जिसके आधारसे यह कहा जाता है कि कषाय प्राभृतकी कुल १८० सूत्र गाथायें हैं । अब यदि इसे प्रक्षिप्त माना जाता है तो ऐसे कई प्रश्न उपस्थित होते हैं जिनका सम्यक समाधान इसे मूल गाथा मानने पर ही होता है । यथा
१ - प्रथम तो गुणधर आचार्यको कषायप्राभृतके १५ ही अर्थाधिकार इष्ट रहे हैं इसे जाननेका एक मात्र उक्त सूत्र गाथा ही साधन है, अन्य नहीं । क्रमांक १३ और १४ सूत्र गाथाएँ मात्र अर्थाधिकारोंका नामनिर्देश करती हैं । वे १५ ही हैं इसका ज्ञान मात्र इसी सूत्र गाथासे होता है और तभी क्रमांक १३ और १४ सूत्र गाथाओंके बाद 'अत्याहियारो पण्णारसविहो अण्णेण पयारेण' इस प्रकार चूर्णि सुत्रकी रचना उचित प्रतीत होती है ।
२ - दूसरे उक्त गाथासे ही हम यह जान पाते हैं कि कषायप्राभृतकी सब गाथाएँ उसके १५ अर्थाधिकारोंके विवेचन में विभक्त नहीं हैं । किन्तु उनमें से कुल १८० गाथाएँ ही ऐसी हैं जो उनके विवेचनमें विभक्त हैं । उक्त गाथा प्रकृतका विधान तो करती है, अन्यका निषेध नहीं करती । यहाँ प्रकृत १५ अर्थाधिकार हैं । उनमें १८० सूत्रगाथाएँ विभक्त हैं । इतना मात्र निर्देश करनेके लिए आचार्य गुणधरने इस सूत्र गाथाकी रचनाकी है । १५ अर्थाधिकारोंसे सम्बद्ध गाथाओंका निषेध करनेके लिए नहीं ।
इस प्रकार इस दूसरी सूत्रगाथाके भी ग्रन्थका मूल अंग सिद्ध हो जाने पर इससे आगेकी क्रमांक ३ से लेकर १२ तककी १० सूत्रगाथाएँ भी कषायप्राभृतका मूल अंग सिद्ध हो जाती हैं, क्योंकि उनमें १५ अर्थाधिकारों सम्बन्धी १८० गाथाओं में से किस अर्थाधिकारमें कितनी सूत्रगाथाएँ आई हैं एक मात्र इसीका विवेचन किया गया है जो उक्त दूसरी सूत्रगाथाके उत्तरार्ध के अनुसार ही है । उसमें उन्हें सूत्रगाथा कहा भी गया है।
यथा
'वोच्छामि सुत्तगाहा जयि गाहा जम्मि अत्थम्मि |
इसी प्रकार संक्रम अर्थाधिकारकी जो 'अट्ठावीस' इत्यादि ३५ सूत्रगाथाएं आई हैं वे भी मूल कषायप्राभृत ही हैं और इसीलिए आचार्य यतिवृषभने उनके प्रारम्भ में
'एतो पयडिट्ठाण संकमो तस्स पुव्वं गमणिज्जा सुत्तसमुक्तित्तणा'
इस चूर्णिसूत्र की रचनाकर और उनसे अन्तमें 'सुत्तसमुक्कित्तणा एससत्ताए' इस वर्णिस्त्रकी रचना कर उन्हें सुत्ररूपमें स्वीकार किया है ।
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