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चतुर्थ खण्ड : ३९५
संसारी जीव क्लिष्ट-दःखी हो रहे हैं। उसकी अनुमोदनाकं निमित्तसे दुर्गतिमें गमन होता है। जो विरोध स्वभाववाले जीव है वे दुःखरूप मार्गपर चलते हुए संसार परम्परामें पड़ रहे हैं ॥२५।। सुखमय अर्थात् आत्मा ज्ञानस्वभाव है, ज्ञानस्वभावकी उपासना करने पर उसके योगसे निर्मल अवस्थाको प्राप्त हो जाते हैं । ज्ञान सदाकाल ज्ञानस्वरूप है। उससे निर्मल सिद्धिकी प्राप्ति होती है ॥२६॥ जो परम इष्ट है वही इष्ट है, इष्टकी उपासना वह अनिष्ट अर्थात् संसारके प्रयोजनसे रहित है। वह पर द्रव्योंकी पर्यायमे रहित है, क्योंकि ज्ञानस्वभावसे कर्मोपर विजय प्राप्त होती है ॥२७॥ जिनवचन शुद्धसे भी शुद्ध है, उसकी उपासनासे विविधकर्म रहित शुद्ध आत्माकी प्राप्ति होती है। आत्मा स्वभावसे निर्मल है, निर्मलस्वरूप है, क्योंकि जो रत्न होता है वह रत्नस्वरूप ही होता है ॥२८॥ सुगुणोंकी उ पत्ति श्रेष्ठ है, उनके निमित्तसे कर्मोका क्षय होता है यह श्रेष्ठ कार्य है। कमल अर्थात् आत्मा श्रेष्ठ और इष्ट दोनों हैं। यह आत्मा कमलकी शोभावाला है और कमलके समान कोमल तथा निर्मल होता है ॥२९॥ जिनवचनके निमित्तसे मिथ्यात्व, अज्ञान और तीनों शल्योंका अभाव होता है। विषय और कषायोंका अभाव होता है तथा उसीसे सम्यग्ज्ञानको उत्पत्ति होती है और कर्मोका क्षय होता है ॥३०॥ आत्मा आत्मस्वरूप है, वह षट्कमल, रत्नत्रय और निर्मल आनन्द स्वरूप है। दर्शनज्ञानस्वरूप है । वही निर्मल चारित्र है तथा कर्मों का क्षय करनेवाला है ॥३२॥ जिसने अपने ज्ञानस्वभावसे संसारपरिपाटीकी ओर दष्टि नहीं की तथा संसारी मलिन पर्यायकी ओर दृष्टि नहीं दी है ऐसा कमलके समान निर्मल जो ज्ञान है वही निर्मल ज्ञान-विज्ञान उपासने योग्य है ॥३२॥ जिनदेवके कहे वचनका श्रद्धान करनेसे यथा निर्मल शुद्ध आत्मा और परमात्माकी श्रद्धा करने से परमभावकी उपलब्धि होती है, इस प्रकार धर्मस्वभावकी प्राप्ति होनेपर नियमसे कर्मोंका क्षय होता है ॥३३॥ जिनदेवने कहा है कि शुद्ध दृष्टिकी प्राप्ति होने पर तीन प्रकारके योगसे तीनों प्रकारके कर्मोंका क्षय होता है । अनुपम ज्ञान ही विज्ञान है । वह निर्मलस्वरूप है और उससे मुक्तिकी प्राप्ति होती है ।॥३०॥ उपसंहार
यह कमलबत्तीसीका भावानुवाद है। इसकी मात्र दो-चार गाथाओंमें कमल शब्द आया है। कमल और आत्मा दोनोंके अर्थमें इसका उपयोग हुआ है । एक गाथामें षट्कमल शब्द आया है। गंजबासौदाके ठिकानेसार ग्रन्थ पत्र सं० १४ में कमलोंका उल्लेख है-१. मसुठौ लवनु (मसूडे), २. इष्ट उष्ट (ओठ), ३. इष्ट कठु उत्पन्न कंछु, २. इष्ट तालु उत्पन्न तालु, २ इष्ट दर्श उत्पन्न दर्श। गंजबासौदा श्री निसईजीके ठिकानेसार पत्र सं० २६ में चतुर्मुख भगवान्के चारमुखोंके लिये उत्पन्न कमल, देवकमल, दत्तकमल और तारकमल ये चार नाम आये हैं। मल्हारगंज श्री निसईजीके ठिकानेसार पत्र सं० ३२ में इष्ट कण्ठ, उत्पन्न कण्ठ, इष्ट तालु, उत्पन्न तालु, इष्ट लखि (नेत्र), उत्पन्न लखि (नेत्र), इष्ट गमि (चरण), उत्पन्न गंमि चरण ये नाम आये हैं। इन सबको कमलके भेद कहा गया है। अभी तक तीनों ठिकानेसार ग्रन्थों में षट्कमलका उल्लेख मेरे देखनेमें नहीं आया । किन्तु बत्तीसीमें यह शब्द आत्माके विशेषण रूपमें आया है। मालूम पड़ता है इससे स्वामीजीने ज्ञायकस्वभाव आत्मा और पाँचों परमेष्ठी इन छहको ग्रहण किया है । इनमसे ज्ञायक आत्मा स्वभावसे निर्मल और पाँच परमेष्ठी कमलके समान निर्मल परिणामवाले होते हैं, सम्भव है इसीलिये इनका षट् कमल शब्द द्वारा स्वामीजीने उल्लेख किया है। जो हो, उनके जीवन अध्यात्ममें ऐसे रम गया था जैसे कमलमें सुगंध । उन्होंने अपने ग्रन्थोंमें आत्माको नन्द, आनन्द, चिदानन्द, सहजानन्द और परमानन्द स्वरूप बतलाया है। इस बत्तीसीमें भी आत्माके अर्थमें एकादि शब्दको छोड़कर इन शब्दों द्वारा त स्वरूप बतलाया है । वे इष्ट क्या है और अनिष्ट क्या है, इस संसारी जीवको देव, शास्त्र और गरुका या मुख्यतः से अपने आत्माका विशदूपसे विवेचन करते हैं और अनिष्टरूप संसारके प्रयोजनोंसे दूर रहनेका उपदेश देते
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