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चतुर्थ खण्ड : ३९३
उपसंहार
पण्डित पूजा भावना रूपसे जीवनमें चरितार्थ करनेके लिये यह अत्युपयोगी बत्तीसी है। इसके अन्तमें व्यवहार और निश्चय दोनों मोक्षमार्गोंका स्पष्ट उल्लेख किया गया है । निश्चय मोक्षमार्ग वस्तुका स्वरूप है और व्यवहार मोक्षमार्ग सकषाय जीवको सालम्बन मन-वचन-कायकी बाह्य प्रवृत्ति-रूप है। अतः निश्चय मोक्षमार्गका अनुगामी होनेसे या सहचर होनेसे वह आत्माके स्वाभाविक स्वरूपकी अपेक्षा मोक्षमार्ग नहीं है । परमार्थसे उसे मोक्षमार्ग मानना परमार्थकी अवहेलना करना मात्र है । इतना अवश्य है कि स्वानुभूति या शुद्धोपयोगके कालमें बाह्य मन-वचन-कायकी प्रवृत्ति न होने पर अप्रत्याख्यान आदि कषायोंका सद्भाव बना रहता है, इसलिये ज्ञानो मोक्षमार्गी जीवके सविकल्प अवस्थाके समान निर्विकल्प अवस्थामें अबुद्धिपूर्वक शुभभाव स्वीकार करके इस अपेक्षासे सकषाय अवस्थामें सालम्बन व्यवहार मोक्षमार्गको स्वीकार किया जाता है।
इस बत्तीसीमें पण्डित पूजाको स्पष्ट किया है । सर्वप्रथम पंचपरमेष्ठी और देव, गुरु तथा शास्त्रका संक्षिप्त स्वरूप बतलाकर स्वानुभूतिसे सनाथ जो व्यक्ति इन तीनोंकी उपासना करता है वह पण्डित है यह स्पष्ट किया गया है क्योंकि भावके बिना द्रव्यका कोई स्थान नहीं है। फिर भी पूजकके अन्तरंग और बहिरंग वेशका इसमें बडी ही अध्यात्म शैली में समर्थन किया गया है। इसके द्वारा अन्तरंगमें आत्माके रत्नत्रय धर्मको स्नानका शुद्ध जल बनाया गया है, साथ ही ध्यानको शुद्ध जल और ज्ञानभावको स्नान बताया गया है । तीनलोकको जाननेवाले ज्ञानको तालाब भी बताया गया है । ज्ञानरूपी शुभ जलमें अवगाहन करना ही स्नान है। यही सच्चा अंतरंग स्नान है। ऐसे पण्डितके तीनों प्रकारके मिथ्यात्व, कूज्ञान, राग-द्वेष, अप्रत्याख्यानादि कषाय, अशुद्ध भावना आदि सब दोष दूर हो जाते हैं, यही उत्तम वस्त्रका धारण करना है, यही आभरण, आभूषण और मुकुटका पहनना है ऐसे पण्डित ही देव, गुरु और शास्त्रका सच्चा पूजक है । ऐसे पण्डितके तीन लोक मृढ़ता, कुदेव और कुगुरुकी पूजा, आठ मठ आदि दृष्टिगोचर नहीं होते । ऐसे जिनेन्द्र कथित जिनमार्ग पर चलनेवाला ही पण्डित है वह स्वयं लोकमें सदा पूजित होता है । इस प्रकार इस ग्रन्थमें भाव पूजाका सुन्दर विवेचन किया गया है । उससे अनुगत द्रव्य-पूजा कैसी होती है इसका भी इसमें संकेत किया गया है ।
स्वामीजीने इसमें अदेव और अगुरुकी पूजाको मिथ्यात्व बतलाया है। मालूम पड़ता है कि उनके कालमें शासन देवताके नाम पर व्यन्तरादि देवोंकी पूजा प्रचलित होने लगी थी और सुगुरुके नाम पर अगुरु स्वरूप भट्टारक पूजे जाने लगे थे। उन्हींकी पूजाका निषेध करनेके लिये स्वामीजीने यहाँ अगुरु और अदेव
प्रयोग किया गया निश्चित जान पडता है। मेरा तो यह भी अनमान है कि इन गुरु कहलानेवाले भट्टारकोंने समाजको भड़काकर समाजसे उनका बहिष्कार तक करनेका निर्देश किया होगा। किन्तु वे अध्यात्मके रसिया महापरुष थे। उन्होंने बहिष्कृत होना तो स्वीकार किया किन्तु अपनी दृढ़ श्रद्धासे अणुमान भी विचलित नहीं हुए। इससे वे जगत पूज्य बन गये इसमें सन्देह नहीं ।
कमलबत्तीसीका भावानुवाद । परम भावको दिखानेवाला परमात्मा ही सब तत्त्वोंमें श्रेष्ठ परम तत्त्व है। वे ही जिन हैं, वे हो परमेष्ठी हैं ऐसे परम देवके देव जिनदेवकी मैं भाव-द्रव्य वन्दना करता हूँ ॥१॥ जो जिनवचनका श्रद्धान है उसीसे कमलकी शोभावाला रागादि मलसे रहित आत्मभाव प्राप्त होता है, उसीको आजव भाव कहत है। इस आर्जवभावसे समभावरूप मक्तिकी प्राप्ति होती है ॥२॥ ज्ञानस्वभाव आत्मा ही अनुमोदनीय-उपासना करने योग्य, रागादिमल रहित ज्ञानस्वभाव सब रत्नोंमें श्रेष्ठरत्न है. ऐसे रागादि मल रहित अपने निमल ज्ञानस्वभाव अर्थात् ज्ञानस्वभाववाले आत्माको उपासनाके फलस्वरूप सिद्ध पदकी प्राप्ति होती है ॥३॥ तीन
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