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चतुर्थ खण्ड : ३९१
आभरणकी जक्ति कही। चारित्र संयक्त मद्रको जुक्ति कही। सीलि सम्यक सप्राणि मद्रका मकटं । पंश्च न्यांण सिरिमुकटि सोहै सतरही अठारही गाथामै दृष्टि युद्धनः दृष्टि निपजै तो मिथ्यादृष्टी चः त्यक्तयं । उनीसवीं गाथामै वीसवीं गाथामै पच्चीस मलको भरतिय कही ॥२५॥ इकईस गाथाम वेदिकाकी जुक्ति कही । बाइसवों गाथामै उचारणको जुक्ति कही। ऊर्ध्वगुणके शुद्धिगुण तेईसवीं गाथामै अविकास । चौबीसइ गाथामै आकार पूजाका स्थूल पूजा कुगुरुके लक्षण कहियौ पच्चीसई गाथामै अविकास कहियो छब्बीसई गाथामै । इन्द्रपति इन्द्रकी जुक्ति कही सताईसवीं गाथामै दाताकी जुक्ति कही। अट्ठाईस गाथामै अवकास उनतीसई गाथामै चार संगकी विधि कही। तीसई गाथामै सताई तत्त्वकी विधि कही । तत्त्व आराधन भेदचारा सत्वई तत्त्व दर्पणके निर्णय । नव पदार्थ न्याणके निर्णय षद्रव्य चारित्रके निर्णय । पंचास्तिकाय तपके निर्णय । दर्शणदष्टि न्यांणाकर्ष । तप हृदया चारित्र कमल गाथा ॥३०॥ इकतीसई गाथामें मिथ्यात्वक्त कुन्याण त्यक्त । बत्तीसई गाथाम औकास ॥३२।। इति श्री पण्डित पूजा सम्पूर्ण ॥६॥
ये तीनों ठिकानेसार ग्रन्थोंमें पंडित पूजाके विषयमें जो कुछ लिखा उसे अविकल यहाँ दिया गया है। इसकी उत्पत्तिके विषयमें गंजबासौदाकी प्रतिमें लिखा है-पंडित पूजाको समय उत्पन्न भयो । अनुवत समार्थ षिपकि विशेष्य ॥ न्यांण प्रयोजनि ॥ अहार हो कित जऔ । माहि किति उपज्ज हो कब बुलायो हो किनि जायौ । मोहि किनि उपजै हो किनि बुलायौ । अवरिकी जाई। अवरिकी जाई उपजै अबरकी बलाय । इति अनुवृत्तिकी परीक्षा तारण तरण कही !!
यह तीनों ठिकानेसार ग्रन्थोंमें पंडित पूजा बत्तीसीके विषयमें जो कुछ लिखा गया है उसका अविकल उल्लेख है। इसपर तत्काल कुछ टीका-टिप्पणी नहीं करेंगे। आगे पण्डित पूजा भावानुवाद दे रहे हैं जिससे उसके अध्यात्मस्वरूपको समझनेमें पाठकोंको सुगमता होगी।
संपादकीय नोट-पंडित पूजा सम्बन्धी जो विशेष विवरण गंजबासौदाकी ठिकानेसारमें मिलता है, उसको देखनेसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि प्राचीन कालमें जिन तारणतरण समाजमें द्रव्य-भावरूप पूजाका प्रचलन रहा है।
पण्डित पूजाका भावानुवाद ओंकार मंत्र ऊर्वलोकके सबसे ऊपर ओंकारके बिन्दु समान शाश्वत सिद्ध परमेष्ठी विराजमान हैं जो तर ज्ञानभावके साथ ध्रुव हैं ॥१॥ निश्चयसे वे युद्ध आत्मतत्त्वको जानते हुए वर्तते हैं। मेरा आत्मा
है ध्रुव है ऐसा अनुभवना निश्चय नमस्कार है ॥२॥ ओंकार स्वरूप आत्माको योगीजन अनुभवते है। जो विवेकशालिनी बद्धि वाले पण्डित हैं वे ही उसे अनुभवते हैं। उसके द्वारा ही देव-पूजा परमार्थ पूजा है ॥३।। ज्ञानके अस्तित्व रूप ह्रींकार है और ओंकार भी ज्ञानस्वरूप है। वह अनुभवका विषय है । ऐसा अरहन्त सर्वज्ञदेवने कहा है। यह अचक्षुदर्शन पूर्वक मतिज्ञान-श्रुतज्ञानका विषय है ॥४॥ जिसके सम्पूर्णरूपसे मतिज्ञान-श्रुतज्ञान होता है वह नियमसे पाँचवें ज्ञान केवलज्ञानमें स्थित होता है। इसे पण्डितजन भले प्रकार जानते हैं वे ज्ञानस्वरूप शास्त्रको नियमसे पूजते हैं ॥५॥ ओंकार और श्रीकारका अनुभवन ही ध्र व ज्ञानस्वरूप है। देव-शास्त्र और गुरु, सम्यक्चारित्र और शाश्वत सिद्ध परमेष्ठी हैं ॥६॥ शुद्ध वीर्य ध्रव तीन लोकके ज्ञाता सिद्ध परमेष्ठीकी उत्पत्तिका मूल है। जो सिद्ध परमेष्ठी शुद्ध रत्नत्रयस्वरूप हैं । पण्डितजन ऐसे गणवाले सिद्धोंकी सच्ची पूजा करते हैं ॥७॥ जो सच्चे देव, गुरु और शास्त्रकी वन्दना करते हैं वे ही शुद्ध धर्मको अनुभवते हैं । वे ही रत्नत्रयके धारी हैं। यही उनका शुद्ध जलसे स्नान है ॥८॥ चेतना लक्षण धर्म है, बुधजन सदा अनुभवते हैं। ध्यान ही शुद्ध जल है । ऐसे जलसे ज्ञानरूप स्नान करते हैं ॥९॥ पंडितजन
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