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यह छद्मस्थवाणीके उक्त वचनोंका आशय है भागों में विभक्त किया जा सकता है।
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(१) बाल जीवन ( २ ) शास्त्राभ्यास जीवन (३) स्वात्मचिन्तन-मनन जीवन (४) ब्रह्मचर्य सहित निरति
चार व्रती जीवन (५) मुनि जीवन ।
१. बालकाल
चतुर्थं खण्ड : ३९९
इस आधार पर स्वामीजीके समग्र जीवनको पाँच
बाल जीवन में स्वामीजीके ११ वर्ष व्यतीत हुए । इस कालमें स्वामीजीने लौकिक और प्रारम्भिक धार्मिक शिक्षा द्वारा एतद्विषयक मिथ्यात्व ( अज्ञान ) को दूर किया । हो सकता है कि वे ५ वर्षकी अवस्थामें अपने पिताजीके साथ अपने मामाजीके यहाँ गये हों और गढ़ौला ग्राममें उनकी चन्देरी पट्टके अधीश भ० देवेन्द्रकीर्ति से भेंट हुई हो । यह भी सम्भव है कि उस भेंटके समय भ० देवेन्द्रकीर्तिने यह अभिमत प्रकट किया हो कि आपका यह बालक होनहार है । इसके शारीरिक चिह्न और हस्तरेखायें ऐसी हैं ओ स्पष्ट करती है कि यह बालक महान तपस्वी होकर लाखोंका कल्याण करेगा ? |
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प्रसंग यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि भ० श्रुतकोति भ० देवेन्द्रकीर्तिके प्रशिष्य और भ० त्रिभुवनकीर्तिके शिष्य थे । उन्होंने स्वयं इस तथ्यका उल्लेख वि० सं० १५५२ में स्वरचित हरिवंश पुराणकी प्रशस्तिमें किया है । और भ० त्रिभुवनकीर्ति स्वामीजीके जन्म समयके पूर्व या बाद वि० सं० १५०१ से लेकर वि० सं० १५२२ के मध्य कभी चन्देरी पट्टके मंडलाचार्य बने, क्योंकि ललितपुरके वि० सं० १५२२के एक प्रतिमालेख में उनका मंडलाचार्य रूपमें उल्लेख है। इससे पूर्वका हमें ऐसा कोई प्रतिमालेख या प्रशस्ति नहीं मिली है जिसमें भ० त्रिभुवनकीर्तिका इस रूपमें उल्लेख किया गया हो। अतएव स्वामीजीके बाल - जीवन के समय या शास्त्राभ्यासके समय श्रुतकीर्तिका मुनि या भट्टारक होकर विचरना सम्भव ही नहीं दिखाई देता । वि० सं० १५२२ के पूर्व जब भ० त्रिभुवनकीर्ति चन्देरी पट्टपर बैठे होंगे, उसके बाद ही कभी श्रुतिकीर्तिने उनसे दीक्षा ली होगी । श्रुतकीर्ति स्वामीजी के शास्त्राभ्यास के कालमें सहाध्यायी रहे हों और परस्पर मिलकर तत्त्वचर्चा करते रहे हों यह सम्भव है ।
यहाँ इस बातका संकेत कर देना चाहता हूँ कि भट्टारक सम्प्रदायमें जिस भट्टारक परम्पराका जेरहटशाख के रूपमें उल्लेख है वह वास्तवमें चन्देरो शाखा थी । चन्देरी में इस शाखा के अनेक भट्टारकों की छतरी बनी हुई हैं तथा चन्देरी ललितपुर आदिके कई प्रतिमालेखों और चाँदखेड़ी के स्तम्भ लेखमें भ० देवेन्द्रकीर्ति से लेकर इस शाखाको चन्देरी शाखा या पट्ट कहा गया है। यह अवश्य है कि "जेरहट" होकर भट्टारकों का कुण्डलगिरि ( कुण्डलपुर ) आना-जाना होता रहा है, इसलिए भ० श्रुतकीर्ति किसी कारणवश वहाँ चले गये और अपनी साहित्यरचना जेरहट में की । यह दमोह जिले के अन्तर्गत एक ग्राम है ।
इन्हीं सब बातोंका विचार कर हमने स्वामीजीकी बालकालमें भ० देवेन्द्रकीर्ति से भेंट हुई, यह अभिमत प्रगट किया है ।
२. शास्त्राभ्यास काल
स्वामीजीकी भेंट भ० देवेन्द्रकीर्तिसे या त्रिभुवनकोर्तिसे तो पहले ही हो गई होगी और उन्होंने अपने कानोंसे अपने विषय में उनका अभिमत भी जान लिया होगा, इससे सहज ही स्वामीजीका मन उनके ( भ० १. भट्टारक सम्प्रदाय ग्रन्थ में इन्हें सूरत पट्टका लिखा है । किन्तु उस समय तक वे चंदेरी आ गये थे । चंदेरी पट्टकी स्थापना उन्होंने ही की थी और वे उस पट्टके प्रथम भट्टारक हुए थे ।
२. विमलवाणी पृष्ठ १७ ।
३. भट्टारक सम्प्रदाय लेखांक ५१३
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