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लगभग इसी प्रकारका उल्लेख गंजबासौदाकी प्रतिमें भी देखनेको मिलता हैस्थान खिमलासा पद्मकमल जू के निवति सुहिगम्य रमण फुलना उत्पन्न भयौ ।
खुरईके ठिकानेसार पाँच मतियोंका निरूपण हुआ है । वे हैं— विचारमति, आचारमति, सारमति, ममलमति और केवलमति । यथा - आचारमतिमें श्रावकाचार उत्पन्न भयौ । विचारमतसौं तिनईबत्तीसी छांनवे माषंड जिने ॥९६॥ सारमतमें तीन सार कहिये १ - न्यायसमुच्चयसार । २ - भंगीसार । ३ - उवसिधसार (उपदेशसार) उत्पन्न भए । ममलमतमै खिपनक १ - ममलपाहुड ग्रन्थ । २ - चौबीसजानौ । केवलमतिमें ग्रन्थ ५छद्मस्तवानी १, नाममाला २, खातिकाविशेष ३, सिधसुभाव ४, सुनसुभाव ५ ।
इस उल्लेखसे पता चलता है कि तीनों बत्तीसियोंका विचारमतमें समावेश होता है । स्वयं जीवन में कैसा चितवन और अनुभव करनेसे यह जीव ज्ञानमार्गका अनुसरण कर अन्त में मोक्षका पात्र बनता है तथा निराकुल लक्षण स्वाश्रयी अनन्त सुखका पात्र बनता है । इन बत्तीसियोंमें खासकर ऐसे निरूपणपर ही विशेष बल दिया गया है । यहाँ इन पाँच मतोंमें मति और मत इन दोनों शब्दों का प्रयोग किया गया है । हमने जहाँ जैसा पाठ है वही रखा है। आम तौरसे ये पाँचों मत कहे जाते हैं, मति नहीं। फिर भी हमने उक्त ठिकानेसारके पाठकी सुरक्षाकी दृष्टिसे उक्त पाठमें परिवर्तन नहीं किया है। मूल पाठ उद्धृत कर दिया है ।
प्रसंगसे यहाँ यह उल्लेख कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि तीनों ठिकानेसार ग्रन्थोंमें मूल ग्रन्थोंके परिचय में तो थोड़ा बहुत भेद है ही । शेष विषयोंके संकलनमें काफी फरक है। इससे ऐसा भी लगता है ये तीनों प्रतियोंके मूल आधारभूत मूल ठिकानेसार ग्रन्थ भी अनेक रहे हैं तथा अन्य कई विषयोंका समावेश भी बाद में कर दिया गया होना चाहिये । इस समय सब अंधकारमें हैं । स्वयं उनके अनुयायियों द्वारा इस विषयमें हमें उपेक्षा होती हुई जान पड़ती है । आदरणीय श्रीमन्त सेठ श्री भगवानदास शोभालालजी तथा उनके बड़े पुत्र भी श्रीमन्त सेठ श्री डालचन्दजी ऐसे महानुभाव हैं, जो कुछ हो रहा है वह उनके प्रयत्नविशेषसे ही हो रहा है । अस्तु,
आगे तीनों बत्तीसियोंमें क्या विषय है इसपर ऊहापोह करेंगे । उनमें प्रथम मालारोहणपर विचार करते हैं
चतुर्थखण्ड : ३८७
मालारोहण
जैसा कि हम पहले लिख आये हैं, स्वामीजीने इसकी रचना एक विवाह के अवसरपर की थी । यह बात तो समझ में इसलिये आती है कि उस प्रसंग पर समाजके अनेक प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित स्त्री-पुरुष सम्मिलित होते हैं अतएव स्वामीजीने अपने अध्यात्म प्रचारका सबसे अधिक उपयुक्त समय यही समझा होगा । यह शुद्ध अध्यात्मकी प्ररूपणा करनेवाला ग्रन्थ है । प्रारम्भमें मंगलाचरणके बाद आत्माके विशुद्ध गुणोंके रूपमें मालाके इस ग्रन्थकी रचना हुई । भले ही इसमें ३२ गाथाएँ हों पर सभी गाथाएँ अध्यात्मके रससे भरपूर हैं ।
भाषा की दृष्टिसे जिसरूपमें यह उपलब्ध होता है, ठीक उसी रूपमें स्वामीजीने इसकी रचनाकी हो या नहीं इसमें संदेह है । इसकी प्रथम गाथाको ही लीजिये --
उवकार वेदति सुद्धात्म तत्त्वं प्रनमामि नित्यं तत्त्वार्थसार्थं । न्यानंमयो सम्यक्दर्श नित्यं संमिक्त चरण चैतन्यरूपं ॥ १॥ थोड़ा बदलकर इसका परिमार्जित रूप यह हो सकता है।
ॐकार वेदंति शुद्धात्मतत्त्वं, ज्ञानमयं सम्यक्दर्श नित्यं
प्रणमामि नित्यं तत्त्वार्थसार्थं । सम्यक्त्वचरणं चैतन्यरूपं ॥
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