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३८८ : सिद्धान्ताचार्यं पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
अस्तु, यह अनुपम ग्रन्थ है । इस प्रथम गाथामें ओंकार स्वरूप पंचपरमेष्ठीको द्रव्य-भाव नमस्कार किया गया है, जो पंचपरमेष्ठी शुद्ध आत्मस्वरूपको प्राप्त हुए या उसकी स्वानुभूतिसे सम्पन्न हैं, सभी पदार्थों में वे सारभूत हैं, निरन्तर ज्ञानमय हैं, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रके साथ जो आत्मस्वरूपको प्राप्त हुए हैं ||१|| दूसरी गाथामें अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीरको द्रव्य-भाव से नमस्कार किया गया है, जिनके अनन्त चतुष्टय पूर्णरूपसे व्यक्त हो गये हैं । साथ ही मैं ( स्वामीजी) सभी केवलियों और अनन्त सिद्धों को नमस्कार कर तुम्हारे प्रबोधके लिए गुणमालाका कथन करूँगा || २ || आगे शुद्ध सम्यग्दृष्टि कैसा होता है इसका निरूपण करते हुए लिखा है - जिसका आत्मा शरीरप्रमाण है, जो भावसे निरंजन है, जिसका लक्ष्य निरंतर चेतन आत्मा पर बना रहता है, भावसे जो निरन्तर ज्ञानस्वरूप हैं, यथार्थ वीर्यके धारी वे शुद्ध सम्यग्दृष्टि हैं || ३ || जो मनुष्य संसारको दुःखरूप समझकर उससे विरक्त हैं वे शुद्ध समयसार हैं ऐसा जिनदेवने कहा है । जो मिथ्यात्व, आठ मद और रागादिभावोंसे आत्मभावको दूर कर चुके हैं. सभी तत्त्वार्थोंमें सारभूत वे शुद्ध सम्यग्दृष्टि हैं ||४|| आत्माके शुद्ध स्वरूपको बतलाते हुए स्वामीजी कहते हैं कि - जो तीन शल्योंसे रहित है, जिसने अपने चित्तका निरोध किया है, जो निरन्तर अपने हृदयमें जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित वाणीकी भावना करता रहता है और जो झूठे देव, गुरु और धर्मसे अत्यन्त दूर है ऐसा सभी तत्त्वार्थों में सारभूत आत्माका शुद्ध स्वरूप है ॥ ॥ जो कोई मनुष्य मुक्ति सुखके साथ शुद्ध सम्यग्दर्शनका धारी है, जो पुण्य-पाप और रागादिभावोंसे विरक्त है, जो निरन्तर इस भावनासे सम्पन्न है कि मेरा आत्मा स्वभावसे ध्रुव शुद्ध और ज्ञान दर्शन स्वभाववाला है ||६|| केवलज्ञान सदा काल समस्त पदार्थोंको जाननेवाला है और शुद्ध प्रकाश स्वरूप है । अभेददृष्टिसे शुद्ध आत्मतत्त्व है । वह आत्मतत्त्व सम्यक्दर्शन - ज्ञान - चारित्र और अनन्त सुखका भोक्ता है ऐसा सभी तत्त्वार्थों में सारभूत शुद्ध आत्माकी तुम निरन्तर भावना करो ||७|
शुद्ध सम्यग्दर्शन मेरे हृदयमें अर्थात् आत्मामें सदा प्रकाशित रहो । उसकी गुणमाला गूंथनेमें वीर्य समर्थ देवाधिक अरहन्तदेव, निर्ग्रन्थ गुरु, वीतरागवाणी, सिद्ध परमेष्ठी, अहिंसा धर्म और उत्तम क्षमा यह गुण उसके मोती या मणि हैं ||८|| यथार्थ तत्त्वोंका तुम निरन्तर मनन करो, जिससे २५ मलदोषोंसे रहित शुद्ध सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होवे । शुद्ध ज्ञान, शुद्ध चारित्र और वीर्यगुण युक्त शुद्ध आत्मतत्त्वको में द्रव्य-भाव नमस्कार करता हूँ || ९ || देवों का देव श्रुतज्ञान स्वरूप आत्मतत्त्व है जो सात तत्त्व, छह द्रव्य, नव पदार्थ, पाँच अस्तिकाय, सामान्य विशेषगुण, चेतन आत्माके वर्णनसे युक्त है तथा विश्वको प्रकाशित करनेवाला और तत्त्वों में सारभूत तत्त्व आत्माको अनुभवने वाला है ॥१०॥ देव, गुरु, शास्त्र, सिद्ध, सोलहकारण, धर्म, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रके गुणोंसे यह माला गूँथी गयी है जो सदा प्रशस्त है ॥११॥
ग्यारह प्रतिमा, सात तत्त्व, चार निक्षेप, बारह व्रत, सात शील, बारह तप, चार दान, शुद्ध सम्यक्त्व - ज्ञान चारित्र, मलरहित शुद्ध सम्यग्दर्शन, आठ मूलगुण इनका यथासम्भव विशुद्ध रीतिसे पालन करते हैं और जो अत्यन्त शुद्ध ज्ञानके धारी हैं वे शुद्ध आत्मस्वरूपके अनुभवने वाले शुद्ध सम्यग्दृष्टि हैं ॥१२- १३ ॥ सम्यग्ज्ञानी जीव शंकादि आठ दोष और आठ भेदोंके अहंकारसे मुक्त होता है । उसके तीन मूढ़ता, मिथ्यात्व और मायाशल्य नहीं देखी जातीं इससे वह निदानसे रहित होता है ऐसा भी समझ लेना चाहिये । अज्ञान, छह अनायतन, पच्चीस मलका वह त्यागी होता है । वह सदोष कर्मका भी त्यागी होता है || १४ ||
रत्नत्रयधारी मुनि शुद्ध आत्मतत्त्वरूप शुद्ध प्रकाशका घारी होता है, आकाशके समान निरावरण विश्व - स्वरूपका धारी होता है, यथार्थ तत्त्वार्थकी बहुत भक्ति से युक्त होता है ||१५||
जो धर्ममें लीन हैं, आत्मगुणों का चिन्तन करते हैं; वे समस्त दुःखोंसे मुक्त शुद्ध सम्यग्दृष्टि हैं । उसीसे आत्मतत्त्वका पोषण होता है वे ज्ञानस्वरूप हुए हैं तथा क्षणमात्रमें मोक्षको प्राप्त करेंगे ॥ १६ ॥ जो शुद्ध
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