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श्री जिन-तारण-तरण और उनकी कृतियाँ श्री जिन तारण-तरण बुन्देलखण्ड और मध्यप्रदेशकी विभूति थे। जब चन्देरी नगरमें भट्टारक परम्पराका उदय हुआ, इनके उदय और धर्म प्रचारका वही समय है । वे प्रतिभाशाली, भगवान् कुन्दकुन्द द्वारा प्ररूपित वीतराग मार्गका अनुसरण करनेवाले थे। अपनी दिव्य वाणी द्वारा व्यवहार-निश्चयस्वरूप वीत राग मोक्षमार्गका वे अपने जीवनके अन्तिम क्षण तक प्रचार करते रहे। इसी तथ्यको सूचित करते हए वे पण्डित पूजाके अन्तमें कहते हैं
एतत सम्यक्त्वपूज्यस्य, पूजा पूज्य समाचरेत ।
मुक्तिश्रियं पथं शुद्धं व्यवहार-निश्चय शाश्वतं ॥३२।। इस गाथामें वे मुक्तिश्रीकी प्राप्तिके व्यवहार-निश्चयस्वरूप शाश्वत शुद्ध मोक्षमार्ग पर चलनेका उपदेश देते हुए कहते हैं कि सब प्रकारके मल-दोषोंसे रहित पूज्य सम्यग्दृष्टिके योग्य पूजा करनी चाहिए ।
जो वर्तमानमें मुद्रित उक्त गाथा मिलती है उसे हमने थोड़ा परिवर्तन करके लिखा है, क्योंकि तीनों ठिकानेसार ग्रन्थोंके अवलोकनसे यह आभास मिलता है कि उत्तर कालमें भाषा और मल विष लेखकोंकी कृपासे मूल ग्रन्थोंमें भाषाकी दृष्टिसे भारी परिवर्तन हुआ है। इसमें सन्देह नहीं कि वे ग्रन्थ अभी तक सुरक्षित बने रहे । भारी छानबीनके बाद भी इनकी रचनाओंकी प्राचीन प्रतियाँ हम उपलब्ध सके । अस्तु,
इसमें सन्देह नहीं कि स्व० ब्रह्मचारी श्री शीतलप्रसादजीने प्रत्येक ग्रन्थका ही नहीं, प्रत्येक गाथाका शब्दानुवाद करके जैन समाजका असाधारण उपकार किया है। शिक्षा, धर्म, साहित्य, वर्तमानपत्र और समाज ऐसा कोई अंग नहीं जिसे उन्होंने अपने लेखन और प्रचारका अंग न बनाया हो । वे कर्मठ कार्यकर्ता थे। सोते-जागते उनके जीवनका प्रत्येक क्षण प्रत्येक अंगको पूर्तिके लिये निश्चित था। श्री जिन तरण-तारणस्वामीको प्रकाशमें लानेका अधिकतर श्रेय भी उन्हींको है। वर्तमान कालीन साधारण मत-भेदको गौण करके देखा जाय तो उनका ही सर्वप्रथम ध्यान श्री तरण-तारणस्वामीजी रचित इस अमूल्य सम्पत्तिकी ओर गया और उनके माने गये १४ ग्रन्थोंमेंसे ९ ग्रन्थोंका शब्दानुवाद करके उन्हें प्रकाशमें लाये। वे वर्तमानकालमें हमारे बीच में नहीं हैं । पर उनकी पुनीत स्मृति चिरकाल तक बनी रहेगी इसमें सन्देह नहीं है ।
२. तीन ठिकानेसार ग्रन्थ स्वामीजीकी रचनाओंसे उनके जीवन पर कुछ प्रकाश पड़े इसके लिये तो उनकी कृतियोंका सूक्ष्म अध्ययन आवश्यक है। छद्मस्थवाणीमें जो कुछ गूढ़ भाषामें कहा गया है उसका ऊहापोह हम श्री ज्ञान समुच्चयसारकी प्रस्तावनामें कर आये हैं। किन्तु उनकी रचनाओंका इस दृष्टिसे अभी भी सम्यग् अध्ययन आवश्यक है।
जो तीन ठिकानेसार ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं उनमें जो-जो सूचनाएं की गई हैं उनपर विस्तृत प्रकाश तो योग्य समय आनेपर ही कर सकेंगे। तत्काल तीन बत्तीसीयोंके सम्बन्धमें जो सूचनाएं की गई हैं उनकी सांगोपांग चर्चा यहाँ हम कर देना चाहते हैं।
१. हमें इस ग्रन्थकी एक प्रतिकी उपलब्धि श्रीयत् ब्र० गुलाबचन्दजीके पाससे मल्हारगढ़ निसईजीसे हुई। यह गुटका ग्रन्थ है। इसकी लम्बाई लगभग १९ अंगुल और चौड़ाई १० अंगुल है। पत्र संख्या १३८ है।
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