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३८४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ धर्मकीति तथा उनके शिष्य, प्रशिष्य शीलसूत्र और ज्ञानसूत्रके नाम आये हैं। भ० धर्मकीतिके प्रशिष्य ज्ञानसूत्रने वि० सं० १६४२ में पैराजाबादमें मूलसंघ कुन्दकुन्द आम्नायके अन्तर्गत चौकोर यन्त्रकी प्रतिष्ठा कराई थी। ले००५ में भ० जगन्द्रषेणका नाम आया है। ये वि० सं० १६८८ में अवस्थित थे। लेख ऋटित हो जानेसे विशेष जानकारी नहीं मिल सकी। ले० १२७ में भ० धर्मकीर्तिका नाम आया है। जिस बिम्ब पर यह लेख है उसकी प्रतिष्ठा वि० सं० १६८३ में हुई थी। स्पष्ट है कि ये उस समय चंदेरी परवार भट्टारकपट्टके पट्टाधीश थे । अपभ्रंशमें लिखित एक हरिवंशपुराण इनकी अमर कृति है। ले० १२५ में भ० सकलकीर्तिका नाम आया है ये भी चंदेरी परवार भट्टारक पट्ट के पट्टाधीश रहे हैं। इन्होंने ही वि० सं० १७२० में इस बिम्बकी प्रतिष्ठा कराई थी। ले० १२८ में विशालकीर्ति और उनके शिष्य भ. पद्मकीतिका नाम आया है ये दोनों भट्टारक मूलसंघ कुन्दकुन्द आम्नायके अन्तर्गत लालूरशाखाके पट्टाधीश थे । ३. मुनि, आर्यिका, पण्डित परम्परा
(११) इस पुस्तिकाके लेख २६ में सिद्धान्तश्री सागरसेन आयिका जयश्री. रिषि रतनऋषि ये तीन नाम आये है । यह लेख वि० सं० १२१६ का है। लेख ३१ में पण्डितश्री विशालकोति आर्यिका त्रिभुवनश्री शिष्यणी पूर्णश्री और धर्मश्रीके नाम आये हैं। इनमें विशालकीर्ति किसी भट्रारकके पंडित मालूम देते हैं । ले० ३५ में पण्डित लक्ष्मणदेव शिष्य आर्यदेव आर्यिका लक्ष्मश्री ऐलिका चारित्रश्रीके नाम आये हैं। इनमें लक्ष्मणदेव और आर्यदेव कहींके भट्टारक पंडित मालम देते हैं। ले० ३६ में पण्डित श्रीजसकीति तथा शीलदिवाकरनी पद्मश्री और रत्नश्रीके नाम आये है। इनमें भी जसकोति कहींके भट्रारक पंडित जान पड़ते हैं। ले० ४४ में सिद्धान्तश्री सागरसेन आर्यिका जयाश्री और दयाश्रीके नाम आये हैं। इनमें सागरसेन मनि होने चाहिये। ले० ७७ में पण्डित महवर्म और आर्यिका श्रीमती शिवणीके नाम आये हैं। तथा ले० ८८ में सिद्धान्ती देवश्रीका नाम आया है। ये मुनि होने चाहिये। ये सब लेख वि० सं० १२१५ के आसपास के हैं। इससे पता लगता है कि उस कालमें भट्टारकोंके आश्रयसे मुनि और आर्यिका और पंडित रहते रहे हैं और वे जिनबिम्ब प्रतिष्ठा आदि कार्यों में सहयोग करते रहे हैं। ४. आम्नाय
(१२) इस पुस्तिकामें सब मिलाकर १२८ लेख संकलित हैं। कुछ लेख ऐसे भी हैं जिनपर क्रमांक अंकित नहीं है। इन सब लेखोंमें सबसे प्राचीन लेख वि० सं० ११५८ का है। इसमें ऐसे बहुत कम लेख हैं जिनमें आम्नायका उल्लेख किया गया है। फिर भी इस प्रदेशमें चिरकालसे मूलसंघ कुन्दकुन्द आम्नाय ही प्रचलन रहनेसे यहाँ अन्य आम्नायका कभी भी प्रचार नहीं हो सका। अब काल बदला हुआ है। समाजमें अपने मूलसंघ आम्नायका गौरव घटता हुआ प्रतीत होता है। कई ऐसे विद्वान भी देखे जाते हैं जो तत्कालीन प्रतिष्ठा और लाभको सामने रखकर मूलसंघ आम्नायको भूलसे गये हैं । कलिकाल है, आगे क्या होगा, कहा नहीं जा सकता।
यह 'प्राचीन शिलालेख' पुस्तिकाके आधारपर लिपिबद्ध किया गया अहारक्षेत्रका यह संक्षिप्त इतिहास है । इसका पुराना नाम मदनेशसागरपुर (ले० १) मालूम पड़ता है। इस लेख में वानपुर आनन्दपुर और वसुहाटिका ये तीन नाम और आये है। इस क्षेत्रका नाम अहारजी कैसे प्रचलित हुआ यह कहना कठिन है। इस पस्तिकामें इस नामका उल्लेख करनेवाला सबसे पहला प्रतिमा लेख वि० सं० १८८१ का है। इसका लेखांक ९१ है । इस लेख में 'अहारमें ये' मुद्रित हुआ है । मूल पाठ 'अहारमध्ये' होना चाहिये । अस्तु अब इस क्षेत्रके सर्वांगीण विकासकी ओर पूरे समाजका ध्यान आकर्षित हुआ है यह प्रशंसा योग्य है। यह हमारा पुराना सांस्कृतिक वैभव है । इसकी भले प्रकार सम्हाल करनी चाहिये ।
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