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चतुर्थ खण्ड : ३८३
मारवाड़ में एक नगरका नाम मेड़ता है। इसलिए जान पड़ता है कि इस नगरके नामपर ही इस अन्वयका नाम मेड़तवाल पड़ा होगा और इस अन्वयके जो परिवार गुजरातमें बसते होंगे उनकी गुजरात अन्वयके अन्तर्गत परिगणना होने लगी होगी। परवार अन्वयके जो गोत्र प्रचलित हैं। उनमें एक गोत्रका नाम माडिल्ल गोत्र है । वर्तमानमें कोई मेडतवाल नामकी जाति तो दृष्टिगोचर होती नहीं । यदि ये माडिल्लगोत्री परवार ही मेडनवाल हों तो कोई आश्चर्य नहीं है । यह अनुमानमात्र है । माडिल्लगोत्रका सम्बन्ध माडूसे भी हो सकता है।
(७) इस पुस्तिकामें ले० १७ गर्गरटान्वय और ले० ७१में गर्गराटान्वय ये दो नाम आये हैं । 'गर्ग' यह अग्रोतक (अग्रवाल) अन्वयका एक गोत्र है । 'गर्ग' इस नामका पाणिनि व्याकरणमें भी उल्लेख हुआ है। 'गर्ग' नामके साथ 'राट शब्द जुड़नेका यह कारण प्रतीत होता है कि जिस प्रदेशमें मख्यतया इस मोत्रके परिवार निवास करते होंगे उसे ही इन लेखोंमें गर्गराट कहा गया है।
(८) इस पुस्तिकामें ले० २३, ७६ और ७८ ऐसे ३ प्रतिमालेख उपलब्ध होते हैं जिनमें अवधपुरान्वय यह नाम अंकित है । अवधपुरान्वयके नामसे एक जाति अवश्य रही है । सम्भवतः वर्तमानमें जो श्री जिनतारणतरणके अनुयायी अयोध्यावासी अन्वयके परिवार बुन्देलखण्डमें बसते है वे पहले कभी अवधापुरा नामसे पुकारे जाते रहे हों तो कोई आश्चर्य नहीं।
(९) इस पुस्तिकामें गोलाराड् अन्वय (गोलात्वारे) का ले० १२ संख्याक एक ही प्रतिमालेख उपलब्ध होता है । इस अन्वयका मुख्य निवास स्थान भिण्ड-भदावर सम्भाग है। इस कारण इस अन्वयके अधिक प्रतिमालेख इस क्षेत्रपर नहीं पाये जाना स्वाभाविक है, क्योंकि इस अन्वयके बहुत ही कम परिवार धीरे-धीरे इस प्रदेशमें आकर बसते गये हैं।
इस पुस्तिकामें ले० ७ और ५० में माधुवान्वयका, ले० ३५ में कुटकान्वयका, ले० २९ और ५१ में क्रमशः वैश्यान्वय और वैश्यवालान्वयका ले० ५६ में माथुरान्वयका और लेख १२९ में सोहितवालान्वयका भी उल्लेख दृष्टिगोचर होता है । इन अन्वयोंके ये ऐसे नाम हैं जो इस समय अनुसन्धानके विषय बने हुए हैं। पुराने कालमें जितने अन्वय (जातियाँ) प्रचलित रहे हैं उनमेंसे वर्तमानमें कितने अन्वयोंका अस्तित्व है और कितने नामशेष हो गये इस और व्यक्तिका तो छोड़िये किसी संस्थाका ध्यान भी नहीं गया है । सम्भवतः भ वष्यमें इस कमीको अनुभव करके समाजका ध्यान इस ओर चला जाय । यदि ऐसा हो सके तो यह समाजको बहुत बड़ी सेवा होगी ऐसा मैं मानता हूँ। २. भट्टारक परम्परा
(१०) बुन्देलखण्डमें भट्टारक परम्पराका बहुत बादमें उदय हुआ है, अतः जिन प्रतिमा-लेखोंमेंसे जिनमें इस परम्पराका उल्लेख दृष्टिगोचर होता है उनमेंसे ऐसे ४६ ही लेख उपलब्ध होते हैं। उदाहरणार्थ लेखांक ७३में भट्टारक माणिक्यदेव और गुण्यदेवके नाम आये हैं। इन्होंने वि० सं० १२१३ से इस क्षेत्रपर एक जिनविम्बकी प्रतिष्ठा कराई थी। ये दोनों किस स्थानके पट्टपर अवस्थित थे यह कहना कठिन है । ले० ९७ और १०९ में भ० जिनचन्दका नाम आया है। ये मूलसंघ कुन्दकुन्द आम्नायकी दिल्ली-जयपुर शाखाके पट्टाधीश थे । बिम्बप्रतिष्ठा आदि कार्यों द्वारा धर्मप्रभावनामें इनका बड़ा योगदान रहा है। इन्होंने सिद्धान्तसार ग्रन्थकी रचना भी की है । लेखांक १०७ में भ० धवलकीर्तिका नाम आया है।
उक्त प्रतिमालेख वि० सं० १७१३ का है । इस पुस्तिकाके अनुवादकने इस नामके साथ सकलकीतिका नाम और जोड़ दिया है। ऐसा उन्होंने किस आधार पर किया है यह कह सकना कठिन है । सकलकीति चंदेरी पटके भट्टारक थे। हो सकता है कि प्रतिमा लेखमें असावधानीसे यह नाम छूट गया हो। लेखांक १२५ में
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