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अहार क्षेत्र : एक अध्ययन
मैं काफी समय पूर्व मवई ग्रामसे बैलगाड़ी द्वारा श्री अतिशयक्षेत्र अहारजीकी वन्दनाके लिए गया था। श्रीयुत पं० श्रीजगन्मोहनलालजी शास्त्री और मेरे बहनोई सा० के लघु भ्राता श्री लाला परमानन्दजी सर्राफ मेरे साथ थे । क्षेत्रकी सुषमा अवर्णनीय है। इससे थोड़ी दूर पर मदनेशसागर नामसे प्रसिद्ध एक बृहत् सरोवर है। क्षेत्रके चारों ओर वनराजि फैली हुई है। इससे इस क्षेत्रकी शोभा द्विगुणित हो गई है। इस बीच इतना अधिक काल बीत जाने पर भी क्षेत्रका मनोहारी वह भव्य स्वरूप इस समय भी प्रत्यक्ष-सा भासित हो रहा है। १. अन्वय या जाति परम्परा
इस क्षेत्रपर वर्तमानमें जितने भी मूर्तिलेख उपलब्ध हैं उनमें जातिके अर्थमें तीन नाम आये हैं-१. अन्वय, २, वंश और ३. जाति । इनमेंसे प्रायः अधिकतर लेखोंमें अन्वय शब्द बहुतायतसे पाया जाता है। वि० सं० १५२४ के एक लेख में वंश शब्द आया है तथा वि० सं० २०वीं शताब्दीके कई लेखोंमें जाति शब्द आया है । लगता है कि प्राचीन कालमें जातीय अहंकारके विषसे धार्मिक क्षेत्रको अछूता रखनेके अभिप्रायसे जातिशब्दका व्यवहार नहीं के बराबर होता रहा है।
यहाँके लेखोंमें अन्वय या जातिवादी जिन नामोंका उल्लेख हुआ है वे हैं-१. गृहपति (गहोई), २. मेडवाल-मइकतवाल, मड़वाल, या मेडलवाल, ३. पौरपाट (परवार), ४. पुरवार, ५. खंडेलवाल, ६. माधुव, ७. लंबकंचुक, ८. गोलापूर्व, ९. गोलाराड्, १०, जैसवाल या जायसवाल, ११. गर्गराट्, १२. कुटक, १३. अवधपुरा, १४. वैश्य, १५. माथुर, १६. देउवाल और १७. सोहितवाल ।
इनमें कई नाम तो ऐसे हैं जिनके अस्तित्वका अब पता ही नहीं चलता। जैसे माध, कुटक, वैश्य, माथुर, देउवाल और सोहितवाल । हम देवगढ़के विषयमें तो कुछ भी लिखनेकी स्थितिमें नहीं है । मुख्यतया ललितपुरका समाज उसकी देख-रेख करता है । वहाँका ऐतिहासिक सर्वेक्षण कराकर वहाँ शिलापट्रोंपर और मूर्तियोंपर पाई जानेवाली लेख आदि सामग्रीको संकलित कराकर वह प्रकाशित कर दे इस दिशामें थोडा भी सक्रिय नहीं जान पड़ता । एक जर्मनी विद्वानने वहाँका गहरा अध्ययनकर जर्मनी भाषामें एक अनुसंधान ग्रन्थ अवश्य लिखा है। हमने प्रयत्न भी किया था कि वह हमें मिल जाय तो उसका अनुवाद कराकर प्रकाशित करा दें, पर उसमें हम सफल नहीं हो सके ।
गृहपति-पहले जिन अन्वयोंका हम नाम निर्देश कर आये हैं उनमें एक जाति गृहपति है । इस जातिके गृहस्थों द्वारा प्रतिष्ठित कराये गये कई जिनबिम्ब यहाँ विराजमान हैं। उनकी लेखांक संख्या २, ९, ३७, ४६, ५१, ५३, ५५, ६३, ६४ और ६६ है । यहाँ भ० शान्तिनाथकी खङ्गासन जो विशालकाय प्रतिमा विराजमान है उसकी प्रतिष्ठा भी इसी अन्वयके परिवार द्वारा कराई गई है। यहाँसे नातिदर बानपुर नगरके बाह्य परसिरमें जो भव्य रचना निर्मित हुई है उसे मूर्तरूप देनेवाला भी यही परिवार है । इस अन्वयमें जो गोत्र प्रचलित हैं उनमेंसे अधिकांश वही हैं जो पौरपाट (परवार) अन्वयमें पाये जाते हैं। गृहपति यह शब्द अर्थ गर्भ प्रतीत होता है। पाणिनिने अपने व्याकरण शास्त्रमें इस शब्दका प्रयोग गृहस्थके अर्थमें किया है। किन्तु उत्तर कालमें इसका प्रयोग जातिके अर्थमें होने लगा है।
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