________________
चतुर्थ खण्ड : ३७७
ऐसा मानकर ही कोठियाजी
।
अपने इस कथनकी पुष्टिमें
इस उल्लेखसे ऐसा लगता है कि पंच पहाड़ोंमें सभी पहाड़ सिद्धक्षेत्र हैं कुण्डलffरको पाण्डुगिरि समझकर उसे ( पाण्डुगिरिको ) सिद्धक्षेत्र सिद्ध कर रहे हैं जैसे छिन्नगिरिका दूसरा नाम बलाहकगिरि है वैसे ही पाण्डुगिरिका दूसरा नाम कुण्डलगिरि भी है यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। साथ ही कुण्डलगिरि कुण्डलाकार है और पाण्डु गिरि गोल है यह बता करके भी दोनों को एक लिखा है । किन्तु उनके ये तर्क तभी संगत माने जा सकते हैं जब अन्य किसी ग्रन्थमें वे पाण्डुपाण्डुगिरिका पर्यायनाम कुण्डलगिरि बता सकें। रही कुण्डलाकार और गोल आकारकी बात सो पाण्डुगिरि गोल होकर ठोस है और कुण्डलगिरि ऐसा ठोस नहीं है । बलाहक (छिन्न) पहाड़को अवश्य ही धनुषाकार बतलाया गया है । यदि पाण्डुगिरि भी धनुषाकार होता तो उसे गोल नहीं लिखा जाता। इसलिए जहाँ पाण्डुगिरिको कुण्डलगिरि ठहराना तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता वहाँ पाण्डुगिरिको धनुषाकार ठहराना भी तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता । इसलिए प्रकृतमें यही समझना चाहिये कि कुण्डलगिरि ही सिद्धक्षेत्र हैं पाण्डुगिरि नहीं । भले ही उसकी गणना राजगृहोंके पंच पहाड़ों में की गई हो ।
यहाँ इतना विशेष कहना है कि आ० वीरसेन और जिनसेनने प्रसंगवश पाँच पहाड़ोंके नाम गिनाये, सिद्ध क्षेत्रोंके नहीं । इसलिये उन्होंने उन नामोंमें कुण्डलगिरि न होनेसे उसका उल्लेख नहीं । तथा आ यतिवृषभ वीरसेनसे बहुत पहले हुए हैं ।
आगे परिशिष्ट लिखकर कोठियाजी लिखते हैं कि 'जब हम दमोहके पार्श्ववर्ती कुण्डलगिरि या कुण्डल " पुरकी ऐतिहासिकता पर विचार करते हैं तो उसके कोई पुष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं होते । केवल विक्रम की १७वीं शताब्दीका उत्कीर्ण हुआ एक शिलालेख प्राप्त होता है जिसे महाराज छत्रशालने वहाँ चैत्यालयका जीर्णोद्धार कराते समय खुदवाया था। कहा जाता है कि कुण्डलपुरमें भट्टाकरकी गद्दी थी । उस गद्दीपर छत्रशालके समकालमें एक प्रभावशाली मन्त्रविद्या के ज्ञाता भट्टारक कब प्रतिष्ठित थे तब उनके प्रभाव एवं आशीर्वादसे छत्रशालने एक बड़ी भारी यवन सेनापर काबू करके उसपर विजय पाई थी । इससे प्रभावित होकर छत्रशालने कुण्डलपुरका जीर्णोद्धार कराया था, आदि । उनके इस मतको पढ़कर ऐसा लगता है कि वे एक तो कभी कुण्डलपुर गये ही नहीं और गये भी हैं। तो उन्होंने वहाँका बारीकी से अध्ययन नहीं किया है । वे यह तो स्वीकार करते हैं कि छत्रशालके कालमें वहाँ एक चैत्यालय था और वह जीर्ण हो गया था । फिर भी वे कुण्डलगिरिको ऐतिहासिकताको स्वीकार नहीं करते । जबकि पुरातत्त्व विभाग कुण्डलगिरिकी ऐतिहासिकताको ८वीं शताब्दी तकका स्वीकार करता गया है । उसके प्रमाण रूपमें कतिपय चिह्न आज भी वहाँ पाये जाते हैं । और सबसे बड़ा प्रमाण तो भगवान् ऋषभदेव ( बड़े बाबा ) की मूर्ति ही है । उसे १८वीं सदीसे १०० वर्ष पुरानी बताना किसी स्थानके इतिहासके साथ न्याय करना नहीं कहा जायगा ।
जिन लोगोंका क्षेत्र से कोई सम्बन्ध नहीं, जो जैनधर्मके उपासक भी नहीं, वे पुरातत्वका भले प्रकार अनुसन्धान करके क्षे त्रको छठीं शताब्दीका लिखें और उसके प्रमाणस्वरूप दमोह स्टेशनपर एक शिलापट्ट द्वारा उसकी प्रसिद्धि भी करें और हम हैं कि उसका सम्यक् प्रकार से अवलोकन तो करें नहीं । वहाँ पाये जानेवाले प्राचीन अवशेषों को बुद्धिगम्य करें नहीं फिर भी उसकी प्राचीनताको लेखों द्वारा संदेहका विषय बनावें यह प्रवृत्ति अच्छी नहीं कही जा सकती ।
कोठियाजीने अपने दोनों लेखोंमें प्रसंगतः दो विषयोंका उल्लेख किया है । एक तो निर्वाणकाण्डके विषयमें चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा है कि 'प्रभाचन्द्र ( ११वीं शती) और श्रुतसागर (१५वीं - १६वीं शती) के
४५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org