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चतुर्थखण्ड : ३७५ भंग भी हैं । साथ ही बड़े मन्दिरकी परिक्रमाके पृष्ठ खुले भागमें चबूतरे पर दीवालसे लग कर बहुत-सी मूर्तियाँ यहाँ वहाँसे लाकर रखी हुई हैं । इससे भी उक्त तथ्यकी पुष्टि होती है ।
श्री डॉ० दरबारीलालजी कोठिया न्यायाचार्य ने 'अनेकान्त' वर्ष ८ माह मार्च ९९४६ किरण ३ में "कौन-सा कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र है' शीर्षकसे एक लेख लिखा था । उसे पढ़कर पत्र द्वारा मैंने उन्हें ऐसे लेख न लिखनेका आग्रह किया था। उस समय जहाँ तक मुझे याद है, उन्होंने मेरी यह बात स्वीकार भी कर ली थी । किन्तु पुनः कुछ परिवर्तन के साथ उसी लेखको जब मैंने उनके अभिनन्दन ग्रन्थ में देखा तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ । यही कारण है कि मुझे इस लेख पर सांगोपांग विचार करनेके लिए विवश होना पड़ रहा है ।
डॉ० स० का प्रथम लेख सन् १९४६ के मार्च माह के अनेकान्त अंकमें प्रकाशित हुआ था । उसमें वे लिखते हैं कि सन् १९४६ के पूर्व विद्वत्परिषद् के कटनी अधिवेशनमें क्या दमोह जिलेका कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र है इसका निर्णय करनेके लिये ३ विद्वानोंकी एक उपसमिति बनाई गई थी । उसी आधार पर अपने अनुसन्धान विचार और उसके निष्कर्षको विद्वानोंके सामने रखनेके लिये डॉ० साहबने उस समय वह लेख लिखा था ।
उनके अभिनन्दन ग्रन्थमें लिखे गये उनके एतद्विषयक इस दूसरे लेखमें भी उन्होंने इस विषयको 'अनुसन्धेय' भाव यह लेख लिखा है । अतः इस विषय पर सांगोपांग विचार करना क्रम प्राप्त है ।
यह तो त्रिलोक प्रज्ञप्ति ही स्वीकार करती है कि अन्तिम अननुबद्ध केवली श्रीधर स्वामी कुण्डलगिरिसे मोक्ष गये हैं । आचार्य पादपूज्य ( पूज्यपाद) ने भी स्वलिखित निर्वाण भक्तिमें कुण्डलगिरिको निर्वाणक्षेत्र स्वीकार किया है । परन्तु यह कुण्डलगिरि किस केवलीकी निर्वाणभूमि है यह कुछ भी नहीं लिखा है । यही स्थिति 'क्रियाकलाप' में संगृहीत प्राकृत निर्वाण भक्तिको भी है । इस प्रकार इन तीन उल्लेखोंसे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र है और त्रिलोक प्रज्ञप्तिके उल्लेखसे भी यह सिद्ध हो जाता है कि कुण्डलगिरिसे अन्तिम अननुबद्ध केवली श्रीधरस्वामी मोक्ष गये हैं ।
अब विचार यह करना है कि वह कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र किस प्रदेशमें अवस्थित है । आचार्य पूज्यपादने अपने स्वलिखित संस्कृत निर्वाण भक्तिके २९ या ९ संख्यक श्लोकमें द्रोणीगिरिके अनन्तर कुण्डलगिरिका उल्लेख करके बादमें मुक्तागिरिका उल्लेख किया है । साथ ही इसमें राजगृहीके पाँच पहाड़ोंमेंसे वैभारगिरि, ऋषिगिरि, विपुलगिरि और बागहकगिरिका भी उल्लेख किया है और इन सब पहाड़ोंको उस श्लोकमें निर्वाण भूमि स्वीकार किया है । इसी श्लोकमें यद्यपि अन्य सिद्ध क्षेत्रोंका उल्लेख भी दृष्टिगोचर होता है, प्रयोजन न होनेसे उन्हें यहाँ हमने अविवक्षित कर दिया है ।
इस उल्लेखसे यह स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य पूज्यपादकी दृष्टिमें राजगृही के पाँच पहाड़ोंमेंसे चार पहाड़ ही सिद्धक्षेत्र हैं, पाण्डुगिरि सिद्धक्षेत्र नहीं है। उन्होंने अपने दूसरे लेखमें जो यह लिखा है कि 'पूज्यपादके उल्लेखसे ज्ञात होता कि उनके समय में पाण्डुगिरि जो वृत्त (गोल) है कुण्डलगिरि भी कहलाता था ' सो इस सम्बन्ध में हमारा इतना कहना पर्याप्त है कि इसकी पुष्टिमें उन्हें कोई प्रमाण देना चाहिये था । सभी आचार्योंने पाण्डुगिरि ही लिखा है । उन्होंने भी वही किया है । इससे यह कहा सिद्ध होता है कि उनके समय पाण्डुगिरि कुण्डलगिरि भी कहलाता था । प्रत्युत् उससे यही सिद्ध होता है कि उनकी दृष्टि स्वतन्त्र ये दो पहाड़ थे ।
ये चार पहाड़ सिद्धक्षेत्र हैं । इसका उल्लेख आ० पूज्यपाद रचित संस्कृत निर्वाण भक्तिमें ही है । यह उल्लेख न तो त्रिलोक-प्रज्ञप्ति में ही दृष्टिगोचर होता है और न प्राकृत निर्वाण भक्ति में ही ।
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