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चतुर्थ खण्ड : ३५५
वंशमें भी प्रचलित हो गये हैं; जैसे-चौहानोंमें कासिंद्रा गोत्रकी एक शाखा रही है। मालूम पड़ता है कि उसीने पौरपाट अन्वयमें कासिल्ल गोत्र प्रसिद्ध हआ है। इसी प्रकार बहतसे राठोड़ कासव गोत्री थे। इसलिये इस गोत्रके जिन राठोड़ बन्धुओंने जैनधर्मके साथ पौरपाट अन्वयको स्वीकार किया उनमें वासल्ल गोत्र प्रसिद्ध हुआ। इसी प्रकार परमारोंमें भी गोयल गोत्र प्रसिद्ध रहा है। इसलिये इस गोत्रके जिन परमारोंने इस अन्वयको स्वीकार किया, वे गोइल्लगोत्री कहलाये । ये कतिपय उदाहरण हैं। अन्य गोत्रोके सम्बन्धमें भी इसी न्यायसे विचार कर लेना चाहिये।
तात्पर्य यह है कि जैन धर्मसे क्षत्रियोंका निकटका सम्बन्ध रहा है। इसलिये उनका समय-समय पर जैनधर्म में दीक्षित होना स्वाभाविक था। यह स्थिति ऐसे कई अन्वयोंकी रही है। इसलिये उक्त गोत्रवाले जिन क्षत्रियोंने जैनधर्मको स्वीकार किया, प्रदेश भेद आदिसे वे अनेक अन्वयोंमें विभक्त होते गये। यहाँ प्रसंगवश हम एक ऐसी सूची दे रहे हैं जिनमें शब्द भेद किये बिना या थोड़े-बहुत फरकसे कई अन्वयोंमें उक्त गोत्र पाये जाते हैं
परवार चरनागरे गहोई
अग्रवाल १. गोहिल्ल गोहिल्ल गांगल, गंगल, गालव
गोभिल २. गोइल्ल गोइल्ल गोल, गोयल, गोभिल
गोयल ३. वाछल्ल वाछल्ल वाछल, वाछिल, वारिछल
वत्सिल ४. वासल्ल वासल्ल काछल, काछिल, काच्छिल
कासिल ५. वांझल्ल वांझल्ल
बादल, बंदिल, वदल ६. कासिल्ल कासिल्ल
काठल, काठिल, काच्छिल ७. कोइल्ल कोइल्ल
काहिल, काहल, कौहिक ८. खोइल्ल खोइल्ल
कासिल, कासिव, कासव ९. कोछल्ल कोछल्ल
कोछल, कोशल, कोच्छल १०. भारिल्ल
भारिल्ल
भाल, भारिल, भूरल ११. भाडिल्ल
भाडिल्ल जैतल
माडल १२. फागुल्ल फागुल्ल
बादरायण या सिंगल इसी सूचीपर दृष्टिपात करनेसे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि किसी समय पौरपाट (परवार) और चरनागरे एक रहे हैं। गहोई अन्वयकी भी लगभग वही स्थिति है । यद्यपि इस अन्वयमें दो गोत्र ऐसे अवश्य हैं जो न तो पौरपाट अन्वयमें पाये जाते हैं और न ही चरनागरे अन्वयमें हो पाये जाते हैं। शेष सब गोत्र उक्त दोनों अन्वयोंसे मिलते-जुलते हैं । इससे ऐसा लगता है कि गहोई अन्वय यद्यपि जैन तो अवश्य रहा है। पर बादमें जब उस अन्वयने जैनधर्म छोड़ दिया तो धीरे-धीरे वह गोत्रोंके मूल नामोंको भूलने लगा और इस प्रकार इन गोत्रोंका मूल नाम क्या है, इसकी जानकारी न रहनेसे उसमें गोत्रोंके नामोंके स्थानमें तत्सम अनेक शब्द प्रयोगमें आने लगे । इतना ही नहीं, दो गोत्रोंके नामों में बदल भी हो गया।
____ मैं 'गहोई समाचार'का सितम्बर १९७० का १२वां अंक देख रहा था। उसके पृ० २१-२३ पर क्या गहोई और चरनागर जैन कभी एक थे ?' एक लेख पढ़ रहा था । लेखक श्री डॉ० गंगाप्रसाद वरसैयां रायपुर हैं, उन्होंने अपने उक्त लेखमें जनगणना विभागके उपसंचालक श्री भोलाप्रसाद जैन एवं उनके पण्डित श्री
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