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३६० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
लिखा है कि कर्णावती नगरमें दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र और श्वेताम्बराचार्य देवसूरिके चातुर्मासके समय दोनों आचार्योंका सम्पर्क होनेपर दोनों आचार्योंने वाद करना निश्चित करके श्वेताम्बर आचार्यके आग्रह पर दिगम्बर आचार्यने अनहिल-पुरपत्तनमें गूर्जर सम्राट सिद्धराज जयसिंहकी विद्वत्परिषदमें आना स्वीकार कर लिया था।
अन्तमें वि० सं० ११८१ वैसाख सुदी १५के दिन यह वाद प्रारम्भ हुआ। विषय स्त्री निर्वाण रखा गया। वादका निर्णय देनेमें सहायता करनेवाले सभासद् महर्षि, उत्साह सागर और राम निश्चित हुए । श्वेताम्बराचार्यको महाकवि श्रीपाल, महापण्डित भानु एवं उदीयमान प्रसिद्ध विद्वान् हेमचन्द्राचार्य सहायता कर रहे थे। दूसरी ओर तीन कैतव दिगम्बराचार्यकी सहायता कर रहे थे। वादका प्रारम्भ करते हुए देवसूरिने अनेक ज्ञानिनी और अनेक सती स्त्रियोंके उदाहरण प्रस्तुत कर ऐतिहासिक ढंगसे स्त्री मुक्तिके सम्बन्धम पूर्वपक्ष प्रस्तुत किया। किन्तु दिगम्बराचार्य श्वेताम्बराचार्यके इस वक्तव्यको सुनकर निस्तेज पड़ गये । ऐतिहासिक ढंगसे प्रस्तुत किये गये उनके वक्तव्यका निरसन नहीं कर सके और इस प्रकार इस वादमें 'प्राग्वाट इतिहासके अनुसार श्वेताम्बर मतकी विजय हुई । उक्त ग्रन्थमें लिखा है कि देवसूरिने कुमुदचन्द्रके साथ सद्व्यवहार किया (पू० २१३) । परन्तु पृ० २२० के अनुसार दिगम्बराचार्य कुमदचन्द्रको, एक चोरके समान उनका तिरस्कार करके, पत्तनपुरसे बाहर निकाल दिया।
इस विषयपर श्वेताम्बर परम्परामें अनेक ग्रन्य और नाटक लिखे गये हैं। कुमारपाल प्रतिबोधमें भी इसके सम्बन्धमें विशेष लिखा गया है । श्वेताम्बर मुनि जिनविजयजी अपनी प्रस्तावनामें इस ग्रन्थके वाक्योंको अनूदित करके लिखते हैं कि इस वादके फलस्वरूप दिगम्बरोंका श्रीपरपत्तनमें प्रवेश निषिद्ध कर दिया गया । उस ग्रन्थमें लिखे गये वचन इस प्रकार है
'वादिदेवसूरिभिः श्रीमदनहिलपुरपत्तने जयसिंहदेवराजस्य राजसभायां दिगम्बरचक्रवर्तिनं कुमुदचन्द्राचार्यवादे निर्जित्य श्रीपत्तने दिगम्बरप्रवेशो निवारितः।'
इस विषय में यह श्वेताम्बर ग्रन्थोंका कथन है । किन्तु इसमें कितनी ऐतिहासिकता है यह अवश्य ही विचारणीय है । दिगम्बर परम्परावादी कुमुदचन्द्र अवश्य हुए हैं । वे चतुर्विध पाण्डित्य चक्रवर्ती थे और श्री माघनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तीके पुत्र थे । उन्होंने अपना परिचय देते हुए प्रतिष्ठाकल्पके कनाडी भाषामें लिखे गये टिप्पणमें लिखा भी है । यथा
श्रोमाघनन्दिसिद्धान्तचक्रवर्तितनूभवः ।।
कुमुदेन्दुरहं वच्मि प्रतिष्ठाकल्पटिप्पणम् ॥ परन्तु उनका समय १४वीं शताब्दिका प्रथम या द्वितीय पाद है, क्योंकि इनके पिता माघनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तीका समय ई० सन् १२६५ वि० सं० १३२२ निश्चित है। और श्वेताम्बर लेखकोंके अनुसार यह वाद वि० सं० १९८० में हुआ था। इस प्रकार वादके और कुमुदचन्द्रके मध्य लगभग १५० वर्षका अन्तर पड़ता है । इसलिये यहाँ ऐसा समझना चाहिये कि या तो श्वेताम्बराचार्य वादिदेवके समयमें चतुर्विध पांडित्य चक्रवर्ती कुमुदचन्द्र हुए हैं । या फिर कुमुदचन्द्रके समयमें वादिदेव हुए हैं। या फिर इन दोनों का एक समय न होनेसे यह वाद हुआ ही नहीं । केवल अपने सम्प्रदाय, में दिगम्बरोंके प्रति अनास्था उत्पन्न करनेके लिये श्वेताम्बर लेखकों द्वारा दिगम्बर और श्वेताम्बरोंके मध्य वाद हुआ और उसमें वादिदेव सूरिने विजय प्राप्त की ऐसी मन गढन्त कल्पना कर ली गई।
यहाँ दो बातें अवश्य ही विचारणीय है कि एक तो यह वाद यदि हुआ है तो सिद्धान्तके आधार पर न होकर बादमें ऐतिहासिक घटनाको आधार क्यों बनाया गया। दूसरे कर्णावतीमें वाद न होकर अनहिलपुरपत्तनमें वादको मूर्तरूप क्यों दिया गया। जब कि कुमुदचन्द्र जानते थे कि वर्तमानमें गुजरातका राजा श्वेता
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