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३६६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
प्रतिमा लेखोंको देखनेसे यह भी पता लगता है कि श्री भ० देवेन्द्रकीर्ति अठसखा परवार थे। वह लेख इस प्रकार है
'संवत १५३२ वर्षे वैशाख सदी १४ गरी श्रीमलसंधे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे नंदिसंघे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० श्री प्रभाचन्द्रदेव तं० श्री पद्मनंदिदेव त० शुभचन्द्रदेव भ० श्री जिनचंद्रदेव भ० श्री सिंहकीर्तिदेव चंदेरीमंडलाचार्य श्री देव्यंद्रकीर्तिदेव त० श्री त्रिभुवनकीर्तिदेव पौरपट्टान्वये अष्टन्वयेसाखनपु-समवेतस्य पुत्र"।'
वे परवार थे इसकी पुष्टि चंदेरीके भट्टारक पट्टको परवार भट्टारक पट्ट कहा गया है इस बातसे होती है । इसकी पुष्टि प्रमाण हम 'चंदेरी-सिरोंज (परवार) पट्ट' इस लेखमें दे आये हैं । (देखो पृ० ४२) । इससे मालूम पड़ता है कि इस पट्ट पर बैठनेवाले जितने भी भट्टारक हुये हैं वे सब परवार थे। उनके नाम इस प्रकार है-भ० देवेंद्रकीति, त्रिभुवनकीति, सहस्रकीति पद्मनंदि, यशःकोति, ललितकीर्ति, धर्मकीर्ति, सकलकीर्ति और सुरेन्द्रकीर्ति । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि भ० ललितकीर्तिके एक शिष्यका नाम रत्लकीति था और रत्नकीर्तिके बाद उनके शिष्यका नाम चंद्रकीति था।
- ये दोनों किस पट्टके पट्टधर भट्टारक थे इसका अभी तक मूर्तिलेखोंसे कोई पता नहीं चलता। इतना अवश्य है कि सिरोंजके कई मन्दिरोंमें ऐसे मूतिलेख अवश्य पाये जाते हैं जिनमें इनके नामोंका उल्लेख हुआ है । इससे ऐसा भी माना जा सकता है कि बहुत सम्भव है कि सिरोंजमें जिस परिवार पट्टको स्थापना हई थी कि वह इनके द्वारा ही प्रारम्भ किया गया जान पड़ता है।
वैसे भ० धर्मकीतिके सकलकीतिके सिवाय एक दूसरे शिष्यका नाम जगतकीति था। इसलिये यह भी सम्भावनाकी जाती है कि सिरोंज पट्टकी स्थापना इन्हींके द्वारा हुई है। इनके उत्तराधिकारीका नाम त्रिभवनकीति था। इनके पट्टाभिषेककी एक चर्चा छंदोंके संकलनमें विशेष रूपसे देखनेको मिलती है। इसके लिए चंदेरी-सिरोंज (परवार) पट्ट शीर्षकसे लिखे गये लेखमें हमने उदधत की है। इनके उत्तराधिकारी शिष्य उत्तरोत्तर कौन-कौन हुए इसका विशेष उल्लेख इस समय उपलब्ध नहीं है । किन्तु संवत् १८७१ में राजकीर्ति नामक एक भट्टारक हुए हैं जिन्हें एक प्रतिमा लेखमें सिरोंज पट्टका अधिकारी कहा गया है। बहत संभव है कि ये ही सिरोंज पट्टके अन्तिम भट्टारक हों।
इस भद्रारक परम्परामें जो भट्टारक धर्मकीति नामके हुए हैं, उन्होंने हरिवंशपुराणकी रचना अपभ्रंश भाषामें की ही थी साथ ही उनका लिखा हुआ एक धर्मपरीक्षा नामका एक ग्रन्थ भी पाया जाता है।
यहाँ हमें दो बातें और विशेष रूपसे कहनी है-एक तो भट्टारक देवेन्द्रकीति शिष्य भट्टारक विद्यानंदिके विषयमें । ये सूरतपट्टके दूसरे भट्टारक थे, ये परवार थे, इनकी उस प्रदेशमें बहुत ख्याति रही है ।
सूरतके पास कातार नामका एक स्थान है जहाँपर इनके चरणचिह्न पादुकायें पाई जाती हैं । साथ ही इन्होंने संस्कृतमें सुदर्शनचरित्र नामके एक ग्रन्थकी रचना भी की है। दूसरे भट्टारक त्रिभुवनकीर्ति शिष्य भ० श्रुतकीर्तिके विषयमें कहना है । यद्यपि इनका भट्टारक सम्प्रदायग्रंथमें उल्लेख तो नहीं है फिर भी ये अपभ्रंश भाषाके असाधारण विद्वान हो गये है। इस भाषामें उनका लिखा हुआ एक पद्मपुराण नामका ग्रन्थ अनेक ग्रन्थागारोंमें पाया जाता है । इस प्रकार देखनेसे मालूम पड़ता है कि इन भट्टारकोंने बुन्देलखण्ड क्षेत्रमें धर्मप्रभावनामें अच्छा योगदान किया है। इनके विषयमें विशेष ऊहापोह अगर समय मिल सका तो आगे कभी करेंगे। इस समय तो संक्षेपरूप ये परवार भट्टारक हैं इस रूपमें दिया गया है।
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