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३६८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
चौसखा आदि । 'मूर' शब्द 'मूल' शब्दका अपभ्रंश रूप है। गुजरात और उसके आस-पासके प्रदेशमें अपने पूर्व पुरुषोंके मूल निवासका ज्ञान करनेके लिये इस शब्दका प्रयोग अब भी किया जाता है । अर्थात् जैसे महाराष्ट्रमें अपने पूर्व पुरुषोंके मूल निवासस्थानका ज्ञान करनेके लिए 'कर' शब्दका प्रयोग किया जाता है । जैसे फलटनकर, पंढरपुरकर आदि। उसी प्रकार गुजरात और उसके आस-पासके प्रदेशमें इसी अर्थमें 'मूल' शब्दका प्रयोग किया जाता है। परवारोंके जो १४४ 'मर' प्रसिद्ध है वे इसी बातके साक्षी है। जैसे जिस परिवारके पूर्व पुरुष ईडरमें रहते थे वे ईडरी मर कहे जाते हैं और जिस परवारके पूर्व पुरुष नारदनगरमें
। नारदमरी कहे जाते हैं । पद्मावती परवाल या पद्मावती परवार यह नाम भी इसी तथ्यका द्योतक है। इतना अवश्य है कि यह एक स्वतन्त्र जाति बन जानेसे 'पद्मावती' यह शब्द भी जातिवाची नामके साथ जुड़ गया है । यह परवार जातिकी एक स्वतन्त्र उपजाति है।
ये कतिपय ऐसे प्रमाण हैं जिनके अनुसार प्राग्वाट जातिके जितने स्वतन्त्र भेद-प्रभेद दृष्टिगोचर होते हैं वे सब पूर्वकालमें एक जातिके होनेसे सबन्धु रहे है। प्राग्वाट इतिहास पृ० ४४ में इन सबको नौ भेदोम विभाजित किया गया है । यथा--
(१) सोरठिया पौरवाल, (२) कपोला पौरवाल, (३) पद्मावती पौरवाल, (४) गूर्जर पोरवाल, (५) जांगड़ा पौरवाल, (६) नेमाड़ी और मलकापुरी पौरवाल, (७) मारवाड़ी पोरवाल, (८) पुरवार और (९) परवार ।
प्राग्वाट इतिहास १० ४६ में इस जातिके इतिहास पर संक्षेपमें प्रकाश डालते हुए लिखा है कि भिन्नमाल और उसके समीपवर्ती प्राग्वाट प्रदेशपर वि० सं० ११११ में जब भयंकर आक्रमण हुआ था, उस समय अपने जन-धनकी रक्षाके हेतु इस शाखाके प्रायः अधिकांश कुल अपने स्थानोंका त्याग करके मालवा प्रदेशमें और राजस्थानके अन्य भागोंमें जाकर बसे थे । इस शाखाके कुल राजस्थानमें बूंदी और हाजती, सपाड़ और ढ ढाड़पट्टोंमें, इन्दौर और आस-पासके नगरोंमें अधिकांशत: बसते हैं। लगभग सौ वर्षासे कुछ कुल दक्षिणमें बीडशहर, परण्डा नामक कस्बोंमें भी जा बसे हैं और वहीं व्यापार-धन्धा करते हैं । इस शाखामें भी जैन और वैष्णव दोनों मतोंके माननेवाले कुल हैं। जो जैन हैं वे अधिकतर दिगम्बर आम्नायके माननेवाले हैं । श्वेताम्बर आम्नायके मानने वाले कुल इस शाखामें बहुत ही कम हैं। इस शाखाके कुलोक गोत्र पीछेसे बने हैं।'
__इस शाखामें आरम्भसे ही ऐसे पुण्य पुरुष होते आ रहे हैं जिनसे इस शाखाका गौरव बढ़ा है। पूर्वमें हम दो महान आचार्योंका नामोल्लेख कर आये हैं। आगे ऐसे भी श्रावक हो गये हैं जिन्होंने जिन-धर्मकी प्रभावनाके अनेक कार्य वि ये हैं। किसीने जिनालयका निर्माण कराया, किसीने जिनबिम्बकी प्रतिष्ठा कराई और किसीने ग्रन्थ रचना की। हमारे सामने सेठका कचा बडा मन्दिरमें विराजमान चौबीसी मूर्तिपट्ट (धातु)में अंकित एक ऐसा लेख है जिसमें इस शाखाको पनावती पौरपाटान्वयका कहा गया है। पूरा लेख इस प्रकार है
संवत् १४४४ वर्षे वैशाख सुदी १२ सोमे दिने श्रीचन्द्र वाठदुर्गे चाहवाणराज्ये श्री अभयचन्द्रदेव सुपुत्र श्री जयचन्द्रदव राज्ये श्री काष्ठासंघे माथुरान्वये आचार्य श्री अनन्तकोति देवास्तत्पट्टे क्षेमकीर्तिदेवा पद्मावतोपौरपाटान्वये साहु माहण पुत्र सा• देवराज भार्या प्रभा पुत्रा पंच करणसोह १. आभास संभागमें भी इस शाखाके कुल बहुतायतसे पाये जाते हैं । वे सब दिगम्बर हैं ।
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